Book Title: Suyagadanga Sutram Part-2
Author(s): Buddhisagar Gani
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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सूयगडाङ्ग सू
दीपिकान्वितम् ।
।। १३३ ॥
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+ अपरिभूष । से णं लेवे नामं गाहावई समणोवासए आवि होत्था | अभिगयजीवाजी जाव विहरइ | X [ नग्गंथे पावयणे निस्संकिए निक्कखिए निवितिगिच्छे लखट्टे गहियट्ठे पुच्छियट्ठे विणिच्छियट्ठे अभिगहियंट्ठे अट्ठिमिंजापेमाणुरागरते, अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अयं अट्ठे अयं परमट्ठे सेसे अणट्टे, उस्सियफलिहे अप्पात्र (अवंगु ) यदुवारे चियत्तंतेउरप्पवेसे चाउद्दसमुदिट्ठपुण्णमासीणीसु पडिपुराणं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणे समणे निग्गंथे तहाविहेणं एसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलामेमाणे बहूहिं सीलवयगुणविरमणपच्चक्खाणपोसहोववासेहिं अप्पाणं भावेमाणे एवं च णं विहरइ ॥ सू० २]
तस्स णं लेवस्स गाहावइस्स तीए नालंदाए बाहिरियाए उत्तरपुरच्छिमे दिलीभाए एत्थ पं + ' जाव ' इत्यत्र “ विच्छिन्नविपुल मत्रणसयणासण जाणवाहणाहणे बहुघणत्र हुजातरूवरजते आओगपओगसंप उचे विच्छड्डियप उरभत्तपाणे बहुदासीदास गोमहिसागवेलगप्पभूते बहुजणस्स " इति पाठ: प्रत्यंतरे । ] एतचिह्नान्तर्गत: पाठो नास्ति सर्वेष्वपि दीपिकादर्शेषु ।
x [
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द्वितीये
श्रुत●
सप्तमाध्ययने लेप श्राद्ध
वर्णनम्
॥ १३३ ॥
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