Book Title: Sramana 2015 01
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 9
________________ 2 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 1, जनवरी-मार्च 2015 का सम्बन्ध व्यक्ति के अनुभवों और उसके व्यक्तित्व से होता है। भगवतीसूत्र की टीका में भी उल्लेख है कि सुषुप्तावस्था में किसी भी अर्थ के विकल्प का प्राणी को जो अनुभव होता है, स्वप्न कहलाता है। व्यक्ति को सुप्त जाग्रतावस्था में जिस किसी भी पदार्थ सम्बन्धी विकल्प का अनुभव होता है तथा चलचित्र के देखने जैसा प्रत्यक्ष होता है, उसे स्वप्नदर्शन कहते हैं। स्वप्न कौन देखता है? इसका उत्तर देते हुए महावीर ने कहा- “सुत्तजागरे सुविणं पासई।" अर्थात् जो सुप्त-जाग्रत होता है ऐसा वह व्यक्ति इंद्रियादि से उपरत हुआ और मनोमात्र व्यापारवाला बना हुआ ही स्वप्न देखता है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने स्वप्न को परिभाषित करने के लिए अलगअलग परिभाषायें दी हैं, जो निम्नलिखित हैं : १) फिशर के अनुसार - “निद्रावस्था में मानसिक क्रियाएँ लगातार चलती रहती हैं और स्वप्न इन लगातार होने वाली मानसिक प्रक्रियाओं की एक अवस्था विशेष है।" २) ब्राऊन ने स्वप्न को परिभाषित करते हुए लिखा है- “स्वप्न वे विभ्रम हैं, जिनका अनुभव हम सबको प्रति रात होता है और जब हम जागते हैं, तो उनका विभ्रमात्मक स्वरूप हमें स्पष्ट हो जाता ३) फ्रायड के अनुसार - "स्वप्न वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा अचेतन मन की इच्छायें चेतन मन में बदले हुए रूप में प्रवेश करती हैं।" ४) जेम्स ड्रेवर ने कहा है- “स्वप्न विभ्रमात्मक अनुभवों की वह गाड़ी है, जिसमें कुछ मात्रा में सामंजस्य स्वभाव पाया जाता है, लेकिन बहुधा स्वप्न अस्पष्ट या निद्रावस्था में होते हैं अथवा समान परिस्थितियों में होते हैं।" ५) आइजनेक एवं उनके सहयोगियों के अनुसार - "स्वप्न निद्रावस्था के अनुभव हैं, जो व्यक्ति के कल्पनात्मक जीवन का एक आंशिक प्रकार है।"

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