Book Title: Sramana 2015 01
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 31
________________ 24 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 1, जनवरी-मार्च 2015 संज्ञानात् तद्व्युदासेन समता समतोच्यते।।२० अर्थात् पदार्थों में की जाने वाली इष्ट-अनिष्ट की कल्पना को केवल अविद्या का प्रभाव समझकर उनमें उपेक्षा धारण करना समता है। समता का भाव आने पर योगी चमत्कारिक शक्तियों का प्रयोग नहीं करता है। सक्ष्म कर्मों का क्षय होने लगता है। इच्छा आदि का नाश होने लगता है।२१ । यहाँ ध्यातव्य है कि ध्यान और समता परस्पर सापेक्ष हैं। ध्यान के बिना समता की प्राप्ति नहीं हो सकती और समताभाव का प्रादुर्भाव हुए बिना ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती। क्योंकि ध्यान में प्राप्त चित्त की एकाग्रता समता के अभाव में स्थिर नहीं रह सकती। ५. वृत्ति संक्षय : विजातीय द्रव्य से उत्पन्न चित्त की वृत्तियों का समूल नाश करना वृत्ति संक्षय है। इसकी सिद्धि से तत्क्षण केवलज्ञान और तदुपरान्त मुक्ति होती है। यह आध्यात्मिक विकास के क्रम में अन्तिम सोपान है। इसका स्वरूप बताते हुए कहा गया है अन्य संयोगवृत्तीनां यो निरोधस्तथा तथा। अपुनर्भावरूपेण स तु तत्संक्षयो मतः।।२२ अर्थात् आत्मा में मन और शरीर के सम्बन्ध से उत्पन्न होने वाली विकल्प रूप तथा वृत्तियों का अपुनर्भाव रूप से जो निरोध (आत्यन्तिक क्षय) होता है, वह वृत्ति संक्षय है। जैन मान्यता में आत्मा स्वभाव से निस्तरंग सागर के समान निश्चल है। जिस प्रकार वायु के सम्पर्क से उसमें तरंगे उठती हैं उसी प्रकार आत्मा में भी मन और शरीर के संयोग से संकल्प-विकल्प तथा अनेक प्रकार की चेष्टा रूप वृत्तियाँ उठती रहती हैं। इनमें विकल्प रूप वृत्तियाँ मनोद्रव्य के संयोग से उत्पन्न होती हैं और चेष्टारूप वृत्तियाँ शरीर-सम्बन्ध से उत्पन्न होती हैं। इनका समूल नाश ही वृत्तिसंक्षय है। इस सन्दर्भ में आचार्य हरिभद्र एक दृष्टान्त देते हैं कि जिस प्रकार वृक्ष के तने को काटने पर भी पल्लव आदि पुन: आ जाते हैं किन्तु जड़ काटने पर नहीं आ पाते उसी तरह आत्मा का अन्य-संयोग-योग्यता का नाश करना चाहिए।२३

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