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66 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 1, जनवरी-मार्च 2015 १९. मानवीकरण - पाश्चात्य अलङ्कारों में सबसे अधिक प्रयोग मानवीकरण अलङ्कार का मिलता है। जहाँ मानवेतर जड़ प्रकृति के पदार्थों में मानव-गुणों का आरोप करके उन्हें मानव के सदृश सप्राण चित्रित किया जाता है या मानव भावों को व्यक्त किया जाता है वहाँ मानवीकरण अलङ्कार होता है। इस अलङ्कार में अमूर्त पदार्थों और अमूर्त भावों को मूर्त रूप में चित्रित किया जाता है। यथा -
तममयमिव गयणयलं अंजण-णिम्मज्जियाओ व दिसाओ।
कोसिय-रुयाणुमेयं जायं रण्णं व वण-गहणं ॥४५३।। अर्थ - आकाश मण्डल अन्धकारमय के समान हो गया। दिशांए अंजन से प्रक्षालित होने के समान हो गयीं। उल्लुओं के रोने से अनुमान किया जाता है कि जीवलोक जंगल की तरह हो गया है। २०. अर्थान्तरन्यास -
उक्तसिद्धयर्थमन्यार्थन्यासो व्याप्तिपुर: सरः।
कथ्यतेअर्थान्तरन्यासः श्रिष्टोउश्रिष्टच स द्विधा।। किसी उक्ति को सिद्ध करने के लिए जहाँ युक्तिपूर्वक किसी अन्य अर्थ को प्रस्तुत किया जाता है वहाँ अर्थान्तरन्यास नामक अलङ्कार होता है। यह अर्थान्तरन्यास अलङ्कार दो प्रकार का होता है१. श्लिष्ट अर्थान्तरन्यास २. अश्लिष्ट अर्थान्तरन्यास यथा - तत्थ वि गो-भूमि-सुवण्ण-वत्थ-तिल मीसियाइँ दाऊण ।
दाणाइँ दिय-वराणं भोयण-सालं समल्लीणो ॥१२८॥ अर्थ - वहाँ गाय, भूमि सुवर्ण, वस्त्र, तिल मिश्रित दान ब्राह्मणों को देकर भोजनशाला में गया। अन्य गाथा - १२९, २९२,२९३ कवि की कल्पना शक्ति अपूर्व होती है वह शब्द और अर्थ दोनों के मूल्यों पर चलता हुआ जो चित्रण करता है उसमें सहजरूप से अलङ्कार आ