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मध्य-प्रदेश में विदिशा से प्राप्त ऐतिहासिक महत्त्व की जैन मूर्तियां : 49 अनुवाद"महाराजधिराज श्रीरामगुप्त द्वारा भगवत् अर्हत् (चन्द्रप्रभ?) की इस प्रतिमा की स्थापना की गयी थी। उन्होंने पाणिपात्रिक.......के उपदेश से.........." विदिशा के दुर्जनपुर से मिली उपर्युक्त तीर्थंकरों की तीनों मूर्तियों और उनके पीठिका लेखों के अध्ययन से निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं१. तीनों ही तीर्थंकर मूर्तियों का उकेरन गुप्तशासक महाराजाधिराज रामगुप्त द्वारा कराया गया, जो समुद्रगुप्त का ज्येष्ठपुत्र और चन्द्रगुप्त द्वितीय का अग्रज था। २. तीनों ही मूर्ति लेखों में तीर्थंकर या जिन के स्थान पर “भगवतो अर्हतः” अभिलिखित है जो कुषाण कालीन परम्परा में है, क्योंकि मथुरा की कुषाण कालीन तीर्थंकर मूर्तियों में भी लेख "भगवतो अर्हत्" से प्रारंभ होते हैं। ३. ये मूर्तियां कुषाण काल में बनी तीर्थंकरों- ऋषभनाथ, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ और महावीर के स्थान पर चन्द्रप्रभ और पुष्पदंत तीर्थंकरों की हैं। ज्ञातव्य है कि कुषाण काल यानी दूसरी शती ई. के अन्त तक चन्द्रप्रभ और पुष्पदंत जिनों की मूर्तियां नहीं बनी थीं। ४. तीनों ही मूर्तियों का निर्माण सम्राट द्वारा जैनाचार्य चेलुक्षमण के उपदेश के फलस्वरूप कराया गया। ५. कुषाण कालीन तीर्थंकर मूर्ति परम्परा में ही दुर्जनपुर की मूर्तियों में भी लांछन का अंकन नहीं हुआ है। केवल पीठिका लेखों में तीर्थंकरों के नाम उल्लिखित हैं। ६. शैली की दृष्टि से दुर्जनपुर की ये प्रतिमाएं कुषाण-गुप्त संक्रमणकाल की हैं, जिनकी तिथि रामगुप्त के काल ३७५ से ३८० ई. के मध्य की
७. मूर्ति लेख में जैनाचार्य के लिए 'पाणिपात्रिक' शब्द का व्यवहार हुआ है जो आज भी जैन दिगम्बर साधुओं की जीवित परम्परा है।