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56 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 1, जनवरी-मार्च 2015 ८. वीप्सा अलङ्कार - आदर उत्साह, आश्चर्य, शोक, घृणा आदि मन के विकारों को सूचित करने के लिए कुछ शब्दों को बार-बार दोहराया जाता है। इससे मनोगत भावना प्रकट होती है। जहाँ एक ही समान, एक ही अर्थ वाले शब्द प्रयुक्त किये जाते हैं वहाँ वीप्सा अलङ्कार होता है। यथा -
एम्व-विहे वय-विहवे एम्व-विहाए वि रुय-सोहाए ।
एम्व-विहं तव-चरणं एम्व-विहो तवोवणे वासो ॥२६९।। अर्थ - इस प्रकार के आयु-वैभव और रूप-सौन्दर्य के होने पर भी तप का आचरण करना और इस तपोवन में रहना, ये सब क्यों? ९. चित्रालङ्कार :
यत्राडंगसन्धितद्रूपैरक्षरैर्वस्तुकल्पना ।
सत्यां प्रसत्तौ तच्चित्रं तच्चित्रं चित्रकृच्च यत् ॥ जिस छंद में अक्षरों से प्रासाद गुण की कल्पना की जाती है उसे चित्रालङ्कार कहते हैं। यथा - एक्केक्कम-वयण-मुणाल-दाण-वलियद्ध-कंधरा-बंधं।
चलण-कमलेसु लिहियं केणेयं हंस-मिहुण-जुयं ॥९९॥ मुंह में रखे हुए कमलनाल देने के लिए आधी गर्दन को घुमाये हुए हंस के जोड़ों को तुम्हारे चरण कमलों पर किसने बना दिया है। अन्य गाथा - १०५ अर्थालङ्कार :अर्थालङ्कार में अलङ्कार का चमत्कार शब्द या शब्दों पर निर्भर नहीं रहता है। इसका अभिप्राय यह है कि शब्दों के बदल देने पर भी अलङ्कार (काव्य सौन्दर्य) नष्ट नहीं होता। अर्थालंकार के भेद :- अर्थालङ्कार के मुख्य तीन भेद हैं - १. सादृश्यमूलक या साधर्म्यमूलक अर्थालङ्कार २. विरोधमूलक अर्थालङ्कार