Book Title: Sramana 2015 01
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 69
________________ 62 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 1, जनवरी-मार्च 2015 १०. अतिशयोक्ति - वस्तुनोवक्तुमुत्कर्षमसम्भाव्यं यदुच्यते। वदन्त्यतिशयारूय तमलङ्कार बुधा यथा ॥ "अतिशय कथन" अतिशयोक्ति है। जहाँ पर किसी वस्तु का वर्णन इतना बढ़ा-चढ़ाकर किया जाये कि वह लोक-मर्यादा का उल्लंघन कर जाये। वहाँ अतिशयोक्ति अलङ्कार होता है। अतिशयोक्ति के भेद - १. सम्बन्धातिशयोक्ति, २. असम्बन्धातिशयोक्ति, ३. अतिक्रमणातिशयोक्ति, ४. चपलातिशयोक्ति ५. अत्यन्तातिशयोक्ति, ६. भेदकातिशयोक्ति, ७. रूपकातिशयोक्ति। यथा - मरगय-कडय-विणिग्गय-जरढत्तण-णिव्वडंत-तण-णिवहं। फलिह-सिलायल-पसरिय-फंस-मुणिज्जंत-णइ-सोत्तं।।३४९।। अर्थ - मरकत मणियों के पहाड़ के मध्य भाग से निकले तथा जीर्णता को प्राप्त तृण समूह अलग हो गया है। स्फटिक के शिलातल पर फैले हुए नदी के झरने स्पर्श से जाने जाते हैं। ११. प्रतीप - जिस कथन में उपमान को उपमेय की उपमा के लिये अयोग्य बताया जाये, उपमान की हीनता सूचित की जाये, उपमान को उपमेय बनाकर अथवा उपमेय को उपमान बनाकर उपमान का तिरस्कार किया जाये वहाँ प्रतीप अलङ्कार होता है। यथा - इय केण णियय-विण्णाण-पयडणुप्पण्ण-हियय-भावेण । अविहाविय-गुण-दोसेण-पाइया सप्पिणी छीरं ॥१००॥ अर्थ - हे चित्रलेखे! अपने विशेष स्थान के प्रदर्शन की हार्दिक इच्छा वाले किसने गुण-दोष का विचार किये बिना सर्पिणी को दूध पिला दिया है।

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