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58 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 1, जनवरी-मार्च 2015 जहाँ “वति" आदि प्रत्यय, “इव" आदि अव्यय, “तुल्य" आदि शब्द
और “कर्मधारय" आदि समासों के प्रयोग से जहाँ अप्रस्तुत (उपमान) के साथ प्रस्तुत (उपमेय) में सादृश्य दिखलाया जाता है वहाँ उपमा अलङ्कार होता है। इसकी पहचान इव तुल्य 'सम' आदि शब्द और कर्मधारय आदि समासों के प्रयोग से होती है- उपमा (उप+मा) का शाब्दिक अर्थ है समीप रख कर मापना। इसके चार प्रमुख अंग माने गये हैं- उपमेय, उपमान, साधारण धर्म एवं वाचक शब्द । उपमा के भेद :उपमा के प्रमुख दो भेद है- पूर्णोपमा और लुप्तोपमा । १. पूर्णोपमा - जब उपमा के चारों अंग मौजूद रहते हैं, तब पूर्णोपमा होती है। २. लुप्तोपमा - जब इन चारों अंग में से कोई भी एक अंग नहीं रहता, तब वहाँ “लुप्तोपमा" होती है। अंग लुप्त होने पर धर्म लुप्तोपमा और वाचक लुप्त होने पर वाचक लुप्तोपमा। .. यथा - चंदु ज्युयावयंसं पवियंभिय-सुरहि-कुवलयामोयं । . णिम्मल-तारालोयं पियइ व रयणी-मुहं चंदो ॥३१॥
अन्य गाथा - ८,१२,५१,६९,७० २. रूपक अलङ्कार -
रूपकं यत्र साधादर्शयोरभिदा भवेत् ।
समस्तं वासमस्तं वा खण्डं वाखण्डमेव वा ॥१॥ अर्थालङ्कारों की श्रेणी से सबसे अधिक उपयोग इस अलङ्कार का किया जाता है। इस अलङ्कार में उपमेय, उपमान का रूप धारण करता है। इससे इसका नाम रूपक पड़ा है। रूपक में उपमेय और उपमान दो पदार्थ एक ही समान मालूम होने लगते हैं।