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लीलावाई कहा में अलंकार व्यवस्था : 59 जब एक वस्तु पर दूसरी वस्तु का आरोप किया जाये अर्थात् जब एक वस्तु को दूसरी वस्तु का रूप दिया जाये या एक वस्तु को दूसरी वस्तु बना दिया जाये तो वहाँ रूपक अलङ्कार होता है। रूपक के तीन भेद होते हैं: १. सांग (सावयक) रूपक, २. निरंग (निरवयन) रूपक ३. परंपरित रूपक। यथा - अण्णण्ण-वण-लया-गहिय-परिमलेणाणिलेण छिप्पंती। कुसुमंसुएहि रुयइ व परम्मूही तरुण-चूय-लया ॥८७॥
अन्य गाथा - ४,२०,२३,३४,७०,९१,१६६ ३. उत्प्रेक्षाः
कल्पना काचिदौचित्याघत्रार्थस्य सतोअन्यथा ।
घोतितेवादिभि: शब्दरूत्प्रेक्षा सा समृता यथा ॥ उत्प्रेक्षा - १,१९,३१,१७३,१३०८ ४. समासोक्ति :
उच्यते वक्तुमिष्टय प्रतीतिजनने क्षमम् ।
सधर्म यत्र वस्त्वन्यत्समासोक्तिरियं यथा ॥ विवक्षित अर्थ में प्रीति उत्पन्न करने के लिये जहां प्रीति योग्य समान अर्थ वाले किसी अन्य अर्थ की उक्ति की जाती है वहां समासोक्ति अलङ्कार होता है। जहाँ प्रस्तुत अर्थ को अप्रस्तुत अर्थ के द्वारा सूचित किया जाये, वहाँ अन्योक्ति अलङ्कार होता है अर्थात् जिसे कुछ कहना हो, उसे स्पष्ट शब्दों में न कह कर अन्य को संबोधित करके ऐसे तरीके से कहा जाये कि उससे वास्तविक बात समझ में आ जाये। समासोक्ति को अन्योक्ति अलङ्कार भी कहा जाता है। यथा - चंदुज्युयावयंसं पवियंभिय-सुरहि-कुवलयामोयं।
णिम्मल-तारालोयं पियइ व रयणी-मुहं चंदो ॥३१॥ अर्थ - कुमुद के कर्णाभूषण को धारण करने वाली और कमल की उत्कृष्ट गन्ध से युक्त अन्य गाथा - २४