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लीलावईकहा में अलङ्कार व्यवस्था
श्रीमती सुलेखा मोगरा काव्यकारों ने शब्द और अर्थ को काव्य का शरीर माना है और रस को काव्य की आत्मा माना है।' काव्यशास्त्र के आचार्यों ने काव्य सौन्दर्य के लिए अलङ्कार तत्त्व को आवश्यक माना है। आचार्य विश्वनाथ ने कहा है कि अलङ्कार शब्द-अर्थ-स्वरूप काव्य के अस्थिर धर्म हैं और ये भावों एवं रसों का उत्कर्ष करते हुए वैसे ही काव्य की शोभा बढ़ाते हैं जैसे हार आदि आभूषण नारी की सुन्दरता में चार चाँद लगा देते हैं।
“ अलङ्करोति भूषयति या काव्यं सोऽलङ्कारः । " जिसके द्वारा अलंकृत किया जाता है, सुशोभित किया जाता है या जो काव्य की शोभा को बढ़ाता है वह अलङ्कार है। "अलम्' का अर्थ आभूषण है और "कार" का अर्थ है प्रदान करना अर्थात् जो अलंकृत या अभिभूषित करे उस काव्योपादान का नाम अलङ्कार है। दण्डी, उद्भट, वामन, रुद्रट, भामह आदि ने अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार काव्य में शोभादायक धर्म को अलङ्कार की संज्ञा दी है।
“काव्य” ‘शोभाकरान् धर्मान् अलङ्कारान् प्रचक्षते' अर्थात् शोभा को बढ़ाने वाले धर्मों को अलङ्कार काव्य कहा जाता है। अलङ्कार शब्द और अर्थ के ये अस्थिर धर्म हैं जो शब्द और अर्थ की शोभा बढ़ाते हैं जो रस आदि के अभिव्यंजन में भी सहायक हैं।
शोभावधर्क धर्म के कारण अलङ्कारों को दो भागों में विभक्त किया गया है।
१. शब्दालङ्कार, २. अर्थालङ्कार
१. शब्दालङ्कार : जहाँ कविता में चमत्कार ( चारुता, सुन्दरता) शब्द पर निर्भर हो ।
२. अर्थालङ्कार :- जहाँ कविता में चमत्कार ( चारुता, सुन्दरता) शब्द पर निर्भर न होकर शब्द के अर्थ पर निर्भर हो ।