Book Title: Sramana 2015 01
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 60
________________ यथा - - २. वृत्यानुप्रास जब वर्ण या वर्ण समूह तीन या तीन से अधिक बार आए। यथा - णिज्जइ णिसाएँ चंदो णिसा वि चंदेण दोहि मी अणंगो । मयणेण वि से विरहो दूरं तेणावि संतावो ॥ ५३२ ॥ लीलावाई कहा में अलंकार व्यवस्था : 53 - ३. श्रुत्यानुप्रास जब एक स्थान से उच्चरित होने वाले बहुत से वर्णों का प्रयोग किया जाए। यथा कक्कस- - कोप्पर - पूरियाणणो कढिण-कर-भुय - कयावेसो । केसि-किसोर-कयत्थण-कउज्जमो जयइ महुमहणो ||७|| - तं णमह जस्स तइया तइय-वयं तिहुयणं तुलंतस्स । सायार मणायारे अप्पणमप्प च्चिय णिसणं ॥ २ ॥ - ४. अन्त्यानुप्रास जब दो या दो से अधिक शब्दों या वाक्यों अथवा छन्दों के चारणों के अन्त में अन्तिम दो स्वरों की बीच के व्यंजन सहित, आवृत्ति हो । यथा - सरसावराह-परिकुविय - कामिणी माण- मोह-लंपिक्कं । कलयंठि-उलं चिय कुणई जत्थ दोच्चं पियाण सया ।। ५८ ।। २. लाटानुप्रास : जब कोई शब्द अनेक (दो या दो से अधिक) बार आए और अर्थ अनेक बार एक ही हो, परन्तु अन्वय प्रत्येक बार भिन्न हो। यथा तो सो सिय-वारण-पट्ठि-संठिओ सेय-वास - सिय-कुसुमो। सेओहंस-विलित्तो सियायवत्तो समुच्चलिओ ॥१२९१॥ ३. पुनरुक्तिप्रकाश - जब शब्द की आवृत्ति हो पर प्रत्येक बार अर्थ वही का वही रहे और अन्वय भी प्रत्येक बार वही रहे । यथा भणियं च पिययमाए पिययम किं तेण सद्द-र -सत्येण । जेण सुहासिय- मग्गो भग्गो अम्हारिस - जणस्स ॥३९॥

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