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'विशेषावश्यकभाष्य' में ज्ञान के सम्बन्ध में 'जाणइ' एवं 'पासइ' ... : 41 उत्तर - यद्यपि ऋजुमति सामान्यग्राही है, परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि केवल सामान्यग्राही ही है अर्थात् दर्शन रूप है, ऐसा मानना उचित नहीं। क्योंकि यहाँ ज्ञान का अधिकार चल रहा है, इसलिए सामान्यग्राही कहने का इतना ही आशय है कि वह ऋजुमति विशेषों को तो जानता ही है, परन्तु विपुलमति जितने विशेषों को जानता है उतने विशेषों को ऋजुमति नहीं जानता अर्थात् विपुलमति, ऋजुमति से अल्पतर जानता और देखता है। इसलिए विपुलमति की अपेक्षा से ऋजुमति सामान्य अर्थात् अल्पविशेषता वाला ज्ञान है, ऐसा समझना चाहिए। इसको समझाने के लिए घड़े का दृष्टान्त दिया है, यही बात टीकाकार ने कही है- “यत: सामान्यरूपमपि मनोद्रव्याकारप्रतिनियितमेव पश्यति।३७” यहाँ प्रतिनियत को देखा है, वह ज्ञानरूप है दर्शनरूप नहीं है, इसीलिए दर्शनोपयोग (चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन) चार प्रकार का बताया गया है। पांच प्रकार का नहीं, कारण कि मन:पर्यवदर्शन परमार्थत: (सिद्धान्त में) संभव नहीं है, क्योंकि ऋजुमति मन:पर्यवज्ञानी मनोद्रव्य से परिणमित मनोवर्गणा के अनंत स्कंधों को मन:पर्यवज्ञानावरण के क्षयोपशम की पटुता के कारण साक्षात् जानतादेखता है, परन्तु जीवों द्वारा चिन्तित घटादि रूप परिमाणों को अन्यथानुपपत्ति से जानता है। इसलिए यहाँ ‘पासई' (देखता है) का भी प्रयोग किया है। आवश्यकवृत्ति में मलयगिरि कहते हैं कि मन:पर्यवज्ञान में क्षयोपशम की पटता होती है, अत: मनोद्रव्य के पर्यायों को ही ग्रहण करता हुआ उत्पन्न होता है। पर्याय विशेष होते हैं। विशेष का ग्राहक ज्ञान है, इसलिए मन:पर्यवज्ञान ही होता है, मन:पर्यवदर्शन नहीं होता है।३८ । उपसंहार - उपर्युक्त चर्चा का सारांश यह है कि मतिज्ञान के संदर्भ में 'नंदी' और 'भगवती' में 'पासइ' क्रिया का विधि और निषेध के रूप में प्रयोग अपेक्षा विशेष से है। दोनों में सिद्धान्त रूप से कोई अन्तर नहीं है। अत: मतिज्ञानी ज्ञान से जानता है और चक्षु और अचक्षु दर्शन से देखता है। श्रुतज्ञानी श्रुतज्ञान से जानता है और पश्यत्ता से देखता है। मनःपर्यवज्ञानी विशेष (पर्यायग्राही होने से सामान्य को ग्रहण करना उसका विषय नहीं है, इसीलिये मन:पर्यवज्ञान का दर्शन नहीं बताया है। चार इन्द्रियां और मन से जो अवग्रह, ईहा आदि होते हैं, उनसे पहले