Book Title: Sramana 2015 01
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 46
________________ 'विशेषावश्यकभाष्य' में ज्ञान के सम्बन्ध में 'जाणइ' एवं 'पासइ' ... : 39 होते हैं, वे मनःपर्यवज्ञान से मात्र जानते हैं, लेकिन अवधिदर्शन नहीं होने से देखते नहीं हैं, इसलिए मन:पर्यवज्ञानी एक अपेक्षा अर्थात् संभव मात्र से ही जानते और देखते हैं। ऐसा 'नंदीसूत्र' की टीका में बताया गया है।३२ यदि ऐसा संभव होता तो आगमकार मन:पर्यव के साथ 'जाणइ', 'पासइ' अथवा 'जाणइ' इस प्रकार विकल्प रूप से इन दोनों क्रियाओं का प्रयोग करते, लेकिन ऐसा वर्णन प्राप्त नहीं होता है। जहाँ भी प्रयोग हुआ है वहाँ इन दोनों क्रियाओं का साथ में ही प्रयोग हुआ है। इसलिए यह मत भी उचित नहीं है। ५. मनःपर्यवज्ञान साकार उपयोग होने से उसमें दर्शन नहीं होता है : कतिपय आचार्यों का मानना है कि मन:पर्यवज्ञान का अतिविशिष्ट क्षयोपशम होने से वह साकार (ज्ञान रूप से ही या विशेष को ग्रहण करने वाला होने से) उपयोग रूप में ही उत्पन्न होता है, जिससे वह मात्र ज्ञान होने से जानता है, लेकिन अवधिज्ञान और केवलज्ञान की तरह इसका दर्शन नहीं होने से यह नहीं देखता है। प्रश्न : तो मन:पर्यवज्ञानी देखता है, ऐसा कैसे कह सकते हैं? उत्तर : मनःपर्यवज्ञानी प्रत्यक्ष होने से मन:पर्यवज्ञान से देखता है; क्योंकि प्रत्यक्ष होने से विशेष रूप से देखता है। ऊपर से (सामान्य रूप से) मन:पर्यवज्ञानी देखता है और साकार होने से जानता है। इसलिए दर्शन नहीं होने पर भी मन:पर्यवज्ञानी देखता और जानता है, ऐसा कह सकते हैं। इस कथन को मल टीकाकार३३ ने सही नहीं माना है। मन:पर्यवज्ञान साकार उपयोग रूप होने से उससे दर्शन नहीं होता है और प्रत्यक्ष होने से “जो वस्तु देखी जाय, वह दर्शन है।" इस प्रकार की जो वचन युक्ति कही है वह उचित नहीं है, क्योंकि यह ज्ञान साकार होने से इसमें दर्शन का निषेध किया गया है। फिर भी “जिसको देखा जाय वह दर्शन है" इस व्युत्पति से दर्शन की प्राप्ति होती है। फिर भी “जानता है" इस पद से मन:पर्यवज्ञान का साकारपना ही सिद्ध होता है और “देखता है" यह शब्द दर्शन में रूढ़ होने से इसका अनाकारपना सिद्ध किया गया है। इस प्रकार परस्पर विरोध की प्राप्ति होने से यह अभिप्राय अयोग्य है।३४

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