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"विशेषावश्यकभाष्य' में ज्ञान के सम्बन्ध में 'जाणइ' एवं 'पासई' शब्दों का तात्पर्य
डॉ० पवन कुमार जैन भारतीय संस्कृति में जैनदर्शन का अनूठा स्थान है। सभी भारतीय दर्शनों ने अपनी मान्यताओं को पुष्ट करते हए अन्य दर्शनों की मान्यताओं का खण्डन किया है। जैनदर्शन ही एक ऐसा दर्शन है जिसमें स्याद्वाद के आधार पर सभी दर्शनों की मान्यताओं को एक अपेक्षा से सही मानते हुए उनके समन्वय का प्रयास किया गया है। जैनदर्शन में जीव-अजीव से सम्बन्धित सभी मान्यताओं का सूक्ष्मदृष्टि से विवेचन किया गया है, जो कि अन्य दर्शनों में उपलब्ध नहीं होता है। प्रायः सभी भारतीय दर्शनों में किसी न किसी रूप में जीव की अंतिम अवस्था निर्वाण, मोक्ष अथवा मुक्ति को स्वीकार किया गया है एवं उसकी प्राप्ति हेतु विभिन्न उपायों का उल्लेख भी किया गया है। जैनदर्शन भी मोक्ष को स्वीकार करता है और उसको प्राप्त करने के लिए तीन मुख्य साधन प्रतिपादित करता है- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र। मोक्ष-प्राप्ति के कारणों में दर्शन (सम्यक् श्रद्धा) के बाद ज्ञान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ज्ञान के बिना चारित्र (क्रिया) अंधा होता है। बिना चारित्र के ज्ञान लंगड़ा होता है जो मोक्ष तक नहीं ले जा सकता है। मोक्ष के इन तीन हेतुओं का एक साथ विस्तार से वर्णन 'विशेषावश्यकभाष्य' में प्राप्त होता है। विशेषावश्यकभाष्य' आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (सातवीं शती) की कृति है। जिनभद्रगणि ने 'आवश्यकसूत्र' पर आचार्य भद्रबाहु रचित 'आवश्यक नियुक्ति' के विषय को आधार बनाते हुए नियुक्ति में जो विषय छूट गया उसको स्पष्ट करते हुए 'विशेषावश्यकभाष्य' की रचना की है। 'आवश्यकसूत्र' के छह अध्ययनों में से सामायिक नामक प्रथम अध्ययन पर ही इस भाष्य की विषयवस्तु आधारित है। इस भाष्य में प्राकृत भाषा की ३६०३ गाथाएँ हैं। विशेषावश्यकभाष्य' में जैन आगमों में प्रतिपादित सभी महत्त्वपूर्ण विषयों का वर्णन किया गया है। इस भाष्य की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता