________________
आध्यात्मिक विकास का रहस्य : 23 भावना के हैं। इन विषयों की भावना करने से वैभाविक संस्कारों (कर्मजन्य उपाधियों) का विलय, अध्यात्मतत्त्व की स्थिरता और आत्मगुणों का उत्कर्ष होता है। अन्य जैन ग्रन्थों में बारह भावनाओं का उल्लेख प्राप्त होता है जिनके नाम निम्न हैं - अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म। ३. ध्यान : भावना करते-करते चित्त को सूक्ष्म उपयोगपूर्वक किसी एक प्रशस्त विषय पर एकाग्र करना ध्यान है। इससे चित्तस्थैर्य तथा भाव के कारणों का विच्छेद होता है। योगबिन्दुकार इसके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं -
शुभैकालम्बनं चित्तं ध्यानमाहुर्मनीषिणः।
स्थिर प्रदीप सदृशं सूक्ष्माभोग समन्वितम्।।१८ अर्थात् स्थिर दीपशिखा के समान ज्योतिर्मान किसी एक शुभ प्रतीक में आलम्बित और प्रशस्त सूक्ष्म बोध वाली चित्त की स्थिति को मनीषियों ने ध्यान कहा है। फलत: आत्मनियन्त्रण, मानसिक स्थिरता तथा अनुबन्धत्यवच्छेद अर्थात् जन्म-मरण से उन्मुक्त भावों का विकास होता है।१९ इस स्थिति में ध्येय वस्तु विषयक एकाग्रता इतनी बढ़ जाती है कि साधक को उस समय ध्येय के अतिरिक्त अन्य का आंशिक विचार भी उद्भव नहीं होता। यह आत्मा को इसके वास्तविक स्वरूप में प्रतिष्ठित करने का प्रबलतम साधन है। आत्मस्वातन्त्र्य, परिणामों की निश्चितता
और जन्म-जन्मान्तर के आरम्भक कर्मों का विच्छेद, इसके फल हैं। ध्यान के भेद के रूप में अन्य ग्रन्थों में आत्र, रौद्र, धर्म और शुक्ल ध्यान का उल्लेख प्राप्त होता है। ४. समता : अविद्या कल्पित इष्ट एवं अनिष्ट वस्तुओं के प्रति तटस्थता रखना समता है। इससे लब्धियाँ प्राप्त होती हैं तथा सूक्ष्म कर्म का नाश होता है। ‘योगबिन्दु' में वर्णित है ‘अविद्याकल्पितेषूच्चैरिष्टानिष्टेषु वस्तुषु।'