Book Title: Sramana 2015 01
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 28
________________ आध्यात्मिक विकास का रहस्य : 21 आत्मस्वरूप का बोध होता है। क्योंकि साधक को सन्मार्ग की ओर गतिशील कराने वाला परमतत्त्व का यथार्थ ज्ञान दर्शाने वाला अध्यात्म ही एक मात्र उपाय है।११ अध्यात्म के बल से ही साधक को आत्मा और शरीर का अथवा जड़ या चेतन का महत्त्वपूर्ण भेदज्ञान प्राप्त होता है। इसी हेतु आचार्य ने सर्वप्रथम अध्यात्म का निर्देश किया है। वे 'योगबिन्दु' में उद्धृत करते हैं औचित्याद् वृनयुक्ताय-वचनात् तत्त्वचिन्ताम्। मैत्र्यादिसारमत्यन्तमध्यात्मं तद्विदो विदुः।।१२ अर्थात् उचित प्रवृत्ति से अणुव्रत-महाव्रत से युक्त होकर मैत्री आदि चार भावनापूर्वक शिष्टवचनानुसार तत्त्वचिंतन करना अध्यात्म है। इस तत्त्वचितंन रूप लक्षण में प्रयुक्त ‘औचित्य', 'वृत्तसमवेतत्व', 'आगमानुसारित्व' और मैत्री आदि ‘भावनासंयुक्त्व' में चार विशेषण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। ये अध्यात्म के वास्तविक रहस्य को उजागर करते हैं। मैत्री आदि चार (मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा) भावनाओं से भावित होने वाला साधक पुरुष- १. मैत्री भाव से सुखी जीवों के प्रति होने वाली ईर्ष्या का त्याग करता है, २. करुणा से दीन-दुःखी जीवों के प्रति उपेक्षा नहीं करता है, ३. मुदिता से उसका पुण्यशाली जीवों पर से राग-द्वेष हट जाता है और ४. उपेक्षाभावना से वह पापी जीवों पर से राग-द्वेष दोनों को हटा लेता है। तात्पर्य कि इन उक्त चार भावनाओं के अनुशीलन से साधक-आत्मा में ईर्ष्या का नाश, दया का संचार और रागद्वेष की निवृत्ति संपन्न होती है। इस प्रकार अध्यात्म के स्वरूप को समझकर उसे आत्मसात करने पर पापों का नाश, वीर्य का उत्कर्ष, चित्त की प्रसन्नता, वस्तुतत्त्व का बोध और अनुभव का उदय होता है। इसका वास्तविक अर्थ है आत्मसाक्षात्कार। इसके अतिरिक्त 'योगबिन्दु' में ही यह जप, देवपूजा, पापनिवृत्ति और मैत्री इत्यादि के अर्थ में भी प्रयोग हुआ है।१३ इसके अधिकारी की चर्चा के प्रसंग में 'योगबिन्दु' में वर्णित है “अन्तिम पुद्गल परावर्त में स्थित, मोहनीय कर्म के तीव्र उदय से रहित भिन्न ग्रन्थि

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