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आत्मविकास का एक प्रमुख साधन है। इत्यादि विकृतियाँ नष्ट होती हैं और आवृत्त हैं, वे अनावृत्त हो जाती हैं।
आध्यात्मिक विकास का रहस्य : 19
इससे काम, क्रोध, मद, मोह आत्मा की जो अनन्त शक्तियाँ
जैन शास्त्रों में आचार्य हरिभद्र के पूर्व आध्यात्मिक विकास क्रम का वर्णन चौदह गुणस्थान, चार ध्यान तथा बहिरात्मा आदि तीन अवस्थाओं के रूप में मिलता है। आचार्य हरिभद्र ही जैन परम्परा में इसका योग रूप से वर्णन करते हैं तथा इतर दर्शनों में वर्णित योग प्रक्रिया और उसकी विशेष परिभाषा के साथ जैन संकेतों की तुलना करते हैं। समन्वयवादी आचार्य हरिभद्र ‘योगबिन्दु' के प्रारम्भ में कहते हैं
मोक्षहेतुर्यतो योगो भिद्यते न ततः क्वचित् । साध्याभेदात् तथा भावे तूक्तिभेदो न कारणम् ।।४
अर्थात् योग मोक्ष का हेतु है, परम्पराओं की भिन्नता के अतिरिक्त मूलतः उसमें कोई भेद नहीं है। जब योग के साध्य या लक्ष्य में कोई भेद नहीं है, वह सबके लिए एक समान है, तब उक्तिभेद या विवेचन की भिन्नता वस्तुतः योग में किसी प्रकार का भेद नहीं ला सकती।
आध्यात्मिक विकास के मार्ग पर अग्रसर व्यक्ति को सर्वप्रथम आत्मोन्मुख होना पड़ता है। योगबिन्दु में वर्णित है कि भोग अर्थात् धन, यौवन आदि की प्राप्ति की आकांक्षा में आदमी क्लेश पाता रहता है। उसे वास्तविक सुख तभी मिलता है जब वह आत्मोन्मुख होता है। आत्मोन्मुख व्यक्ति शान्त होता है, उसे विशिष्ट गुण युक्त बुद्धि प्राप्त होती है ।" वह व्यक्ति या साधक साधना के द्वारा योग्यता प्राप्त करके ईश्वर बन सकता है। आत्मा के प्रयत्न द्वारा आध्यात्मिक विकास करने के बाद उसे परमात्मा मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती है।
मुक्तो बुद्धोऽर्हन् वाऽपि यदैश्वर्येण समन्वितः ।।
तदीश्वरः स एव स्यात् संज्ञाभेदोऽत्र केवलम् ॥