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आध्यात्मिक विकास का रहस्य (योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में)
डॉ. राहुल कुमार सिंह आचार जैनधर्म का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है जिसका द्विविध प्रयोजन दृष्टिगत होता है- १. आध्यात्मिक शुद्धि उत्पन्न करना एवं २. व्यक्ति को योग्य सामाजिक प्राणी बनाना। प्रथम प्रयोजन अनुशासनात्मक जीवनयापन के माध्यम से अनादि कर्म-चक्र से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है, जब आत्मा पूर्णतया कर्मों से मुक्त हो जाती है तो यही आध्यात्मिक मुक्ति कही जाती है। द्वितीय प्रयोजन सभी प्राणियों के प्रति समानता का दृष्टिकोण विकसित करने के लिए प्रेरित करता है और यह एक व्यक्ति
और उसकी संपत्ति के प्रति भी पवित्र दृष्टिकोण उत्पन्न करता है। उपरोक्त सन्दर्भ में प्रो० रानाडे का एक कथन अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है"जिस प्रकार बुद्धि संकल्प और भाव उच्चतम मनोवैज्ञानिक विकास में एक दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते उसी प्रकार तत्त्वमीमांसा, आचार और रहस्यवाद भी उच्चतम आध्यात्मिक विकास में एक दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते। जैन धर्म में रहस्यवाद, आत्मानुभूति, आत्मदर्शन, आत्मसाक्षात्कार या आत्मलीनता की वचन-अगोचर स्थिति का ही अपरनाम है जिसे आचार्यों ने समाधि, योग, तत्त्वोपलब्धि, निर्विकल्प आत्मध्यान, शुद्धोपयोग आदि शब्दों से भी कहा है।''२ जैन वाङ्मय आत्मिक अथवा आध्यात्मिक विकास के लिए निवृत्ति पर विशेष बल देता है और इसके लिए योग नितान्त अपेक्षित है। प्रारम्भ में एवं साधारणतया जैन परम्परा में मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति को योग कहा गया है, यह आस्रव रूप है। ध्यान, तप, समाधि, संवर आदि शब्द आत्मसाधना के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। आत्मसाधना के अर्थ में, जैन परम्परा में, 'योग' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग आचार्य हरिभद्र द्वारा किया गया है। योग को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा है कि 'मोक्षप्राप्ति के लिए जो धर्म क्रिया अथवा विशुद्ध व्यापार किया जाता है, वह धर्म व्यापार योग है।'३ मूलत: यह जीवन-शोधन का मार्ग है। यह