Book Title: Sramana 2015 01
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 18
________________ स्वप्न : एक मनोवैज्ञानिक चिन्तन : 11 है और उसका स्वप्न सत्य हो जाता है, वह सचमुच अपने हाथ में स्वर्ण मुद्रा देखता है। ऐसे स्वप्न को यथातथ्य स्वप्न कहते हैं। २. प्रतानस्वप्न - ये विस्तार वाले स्वप्न होते हैं, जो दीर्घकाल तक स्थिर रहते हैं। ये सत्य भी होते हैं और असत्य भी होते हैं। ३. चिन्तास्वप्न - जाग्रत अवस्था में जिस विषय का चिंतन किया गया हो निद्रा (सुषुप्तावस्था) में उसी का दिखाई देना चिन्तास्वप्न है। ४. तद्विपरीत स्वप्न - स्वप्न में जैसी वस्तु दिखाई दी जाग्रतावस्था में उससे विपरीत वस्तु की प्राप्ति होना तद्विपरीत स्वप्न है। ५. अव्यक्तदर्शन - जिसमें स्वप्नार्थ का अस्पष्ट अनुभव होता है, ऐसा स्वप्न अव्यक्त अस्पष्ट-दर्शन स्वप्न कहलाता है। अर्थात् स्वप्नावस्था में दृष्ट पदार्थ का जाग्रत अवस्था में भूल जाना अव्यक्तदर्शन स्वप्न कहलाता है।१२ स्वप्नों के प्रकार कल्पसूत्र, भगवतीसूत्र तथा स्वप्नसारसमुच्चय में स्वप्नों के असंख्य प्रकार बताये गये हैं, किन्तु ७२ प्रकार के स्वप्नों१३ का मुख्य रूप से उल्लेख मिलता है। उनमें से ४२ प्रकार के स्वप्न जघन्य फल, ३० स्वप्न मध्यम फल तथा १४ स्वप्न सर्वोत्तम फल देने वाले होते हैं, जो विशिष्ट महापुरुषों (तीर्थंकरों) की माताएँ देखती हैं। विशेष जानकारी के लिए देखें- 'स्वप्नसार-समुच्चय' पुस्तक की भूमिका तथा 'कल्पसूत्र'। विस्तार भय के कारण यहाँ केवल संक्षिप्त उल्लेख ही अपेक्षित है। आधुनिक असामान्य मनोविज्ञान में स्वप्नों के प्रकार - स्वप्न व्यक्तिगत अनुभवों से संबन्धित होते हैं। ये आत्मगत और आत्मकेन्द्रित होते हैं। अतः स्वप्नों में विविधता एवं विचित्रता बहुत अधिक होती है। इसलिए स्वप्नों का वर्गीकरण सरल नहीं है। वे स्वप्न जो व्यक्तियों को अधिकतर दिखाई देते हैं उन स्वप्नों के मुख्य प्रकारों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार से है

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