Book Title: Sramana 2015 01
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 14
________________ स्वप्न : एक मनोवैज्ञानिक चिन्तन : 7 हैं। शयन करने पर शारीरिक मुद्रा भी उत्तेजक के रूप में आ सकती है, जैसे कष्टदायक मुद्रा में सोना, सोते समय हाथ-पैर फैलाकर रखना आदि। सार्जेण्ट ने भी कहा है - "स्वप्नद्रष्टा उत्तेजकों को ग्रहण करता है, परन्तु उसका सोया मन उसके अर्थ को स्पष्ट नहीं कर पाता है।" आगे उन्होंने बताया है कि यदि व्यक्ति रात्रि में बहुत अधिक खाकर सोता है और उसकी पाचन क्रिया में गड़बड़ी हो जाती है, तो उसके हृदय की गति भी तीव्र हो जाती और इस अवस्था में ऊँची जगह से गिरने या किसी भयंकर घटना का वह स्वप्न देखता है। रॉबर्ट ने भी स्वप्न को एक शारीरिक क्रिया के रूप में माना है। उनका कथन है कि जाग्रत जीवन के अपूर्ण विचार तथा ऐन्द्रिक प्रभाव ही स्वप्न उत्पन्न करते हैं। स्वप्नों की उपयोगिता के सम्बन्ध में रॉबर्ट का कथन है कि स्वप्न मनुष्य के जीवन को संतुलित बनाते हैं। जाग्रतावस्था में मस्तिष्क पर अपूर्ण विचारों तथा ऐन्द्रिक प्रभावों से जो बोझ एकत्र हो जाता है, वह स्वप्नावस्था में हल्का हो जाता है। इस प्रकार स्वप्न मस्तिष्क को ऐंद्रिक प्रभावों के बोझ से बचाते हैं। फ्रायड ने दैहिक सिद्धान्त की मान्यता को अस्वीकार कर स्वप्न के एक नवीन मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उसने अपनी पुस्तक "स्वप्न विश्लेषण" में स्वप्नों की विशद व्याख्या प्रस्तुत की और बतलाया कि स्वप्न का सम्बन्ध मनुष्य की वृत्तियों के साथ होता है। उसने कहा कि “स्वप्न निरर्थक तथा अनुपयोगी नहीं होते, बल्कि सार्थक एवं उपयोगी होते हैं।" इसलिए उसने स्वप्न सिद्धान्त को इच्छापूर्ति का सिद्धान्त कहा है। फ्रायड ने कहा कि स्वप्न से व्यक्ति की अतृप्त अचेतन इच्छाएँ संतुष्ट होती हैं। स्वप्न के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उसने कहा "स्वप्न हमारी निद्रावस्था की वह अचेतन मानसिक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा हमारे अचेतन मन में दमित इच्छाओं की अभिव्यक्ति एवं संतुष्टि गुप्त रूप से होती है।' स्वप्न की व्याख्या के लिए उसने मन के तीन पहलुओं-चेतन,अर्द्धचेतन तथा अचेतन पर विशेष जोर दिया है। उसके अनुसार, जाग्रतावस्था में अचेतन और अर्द्धचेतन के बीच आदर्श भावना प्रतिरोध का कार्य करती

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