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आठ योगदृष्टियाँ : 5 'वेद्यसंवेद्यपद' (सत्य की परीक्षा करके तदनुरूप आचरण करना) प्राप्ति भी कहा जाता है। यहाँ भ्रमदोष (शंका) नहीं रहता है। 6. कान्तादृष्टि26- इस दृष्टि में धारणा (किसी पदार्थ के किसी एक भाग पर चित्त को स्थिर करना) के संयोग से सुस्थिरता आती है। तारागणों के आलोक के समान इसका स्थिर आभामण्डल होता है। पूर्व की दृष्टियों में जहाँ योगी कर्मग्रन्थियों को छेदने में प्रयत्नशील रहता है वह यहाँ आकर अपूर्वता का अनुभव करता है। पूर्ण क्षमाशील बन जाता है। सर्वत्र उसका आदर-सत्कार होता है। परम आनंदानुभूति होती है। स्व-पर वस्तु का सम्यक् बोध हो जाता है। यह दृष्टि आगे की दृष्टियों की आधारशिला होती है। प्रमादजन्य अतिचार-रहित अवस्था है। सूक्ष्मबोध के बाद 'मीमांसा' (चिन्तन-मनन) गुण विशेष रूप से जागृत होता है। 7. प्रभादृष्टि7- इसमें सूर्य की प्रभा के समान अत्यन्त स्पष्ट बोध होने लगता है। योगी आत्मसुख की प्राप्ति में तल्लीन हो जाता है। रोगादि क्लेशों से पीड़ित नहीं होता है। असंगानुष्ठान (समता) उदित होता है। असंगानुष्ठान के चार प्रकार हैं- (क) प्रीति (कषायमुक्त रागभाव), (ख) भक्ति (आचारादि क्रियाओं में स्नेह), (ग) वचन (शास्त्र-वचन) तथा (घ) प्रवृत्ति (वचनानुष्ठान में स्वाभाविक प्रवृत्ति)। यहाँ योगी को सच्चे सुख की अनुभूति होती है। केवलज्ञान-प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है। चित्त-एकाग्रतारूप ध्यान इसमें प्रवाहरूप और दीर्घकालिक होता है जबकि कान्तादृष्टि में अल्पकालिक और एकदेशीय होता है। प्रतिपत्ति गुण (समाधि) की प्राप्ति होती है। कान्तादृष्टि में मीमासित तत्त्व का इसमें अमल प्रारम्भ हो जाता है। अपूर्व शान्ति मिलती है। कर्ममल क्षीणप्राय हो जाता है। 8. परादृष्टि8- इसमें आत्म-प्रवृत्ति गुण (प्रतिपत्ति गुण की पूर्णता) की प्राप्ति होती है। इसे चन्द्रमा की कान्ति की तरह शान्त और सौम्य अवस्था कहा है। अखण्ड आनन्द मिलता है। प्रभादृष्टि में ध्येय का आलम्बन होता है परन्तु परादृष्टि में ध्याता, ध्येय और ध्यान का भेद नहीं रहता है। समस्त दोषों (मोहनीय कर्मो) के नष्ट होने से अनेक लब्धियों की प्राप्ति होती है। इसमें समाधि की सम्प्राप्ति होती है। धारणा से प्राप्त होने वाली एकाग्रता ध्यानावस्था को पार करती हुई समाधि में पर्यवसित होती है। धारणा में अप्रवाह रूप एकाग्रता है, ध्यान में प्रवाह है परन्तु सातत्य नहीं जबकि समाधि में अविच्छिन्न एकाग्रता होती है। कालसीमा अधिकतम अन्तर्मुहूर्त है। यहाँ परभाव में रंचमात्र भी आसक्ति न होने से 'आसंगदोष' नहीं रहता। आत्मसमाधि की अथवा जीवन्मुक्त की यह अवस्था है। निर्वाण-प्राप्ति हेतु अयोग-केवली होकर साधक योग-संन्यास लेता है और