Book Title: Sramana 2012 01
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 49
________________ 42 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 1 / जनवरी-मार्च 2012 ऋग्वेद में रूद्र के स्थान पर वृषभ का प्रयोग पाँच बार किया गया है। तैत्तिरीय आरण्यक में भगवान् ऋषभदेव के शिष्यों को वातरशना ऋषि और ऊर्ध्वमयी कहा गया है। शिवपुराण' में शिव का आदि तीर्थकर वृषभदेव के रूप में अवतार लेने का उल्लेख है। भागवत में भी ऋषभावतार का चित्रण है। मनुस्मृति में कहा है- अढ़सठ तीर्थों में यात्रा करने से जितने फल की प्राप्ति होती है. उतना फल आदिनाथ के स्मरण से होता है। लिंगपुराण", शिवपुराण, ब्रह्माण्डपुराण", विष्णुपुराण", कूर्मपुराण, नारदपुराण", वाराहपुराण, स्कन्धपुराण, आदि पुराणों में केवल नामोल्लेख ही नहीं ऋषभदेव भगवान् के जीवन-प्रसंग भी उल्लिखित हैं। जैनधर्म के अन्य तीर्थकर द्वितीय तीर्थकर भगवान् अजितनाथ का समय पूर्णतया चतुर्थ सुषमा-दुषमा काल है। वे श्रीराम-लक्ष्मण से बहुत पहले हुए हैं। महाभारत में अजित और शिव को एक ही बतलाया गया है। महाभारत और पुराणों के कर्ता जिन्हें असुर नायक बतलाते हैं वे सुमति (पाँचवें), सुपार्श्व (सातवें) और चन्द्रप्रभ (आठवें) जैन तीर्थकर हैं। पाश्चात्य विद्वान् सोरेन्सन भी यही मानते हैं। शुब्रिग महोदय वेदों में विशेषकर यजुर्वेद में ऋषभदेव के साथ ही साथ सुमति, अनन्त, अरिष्टनेमि एवं महावीर के नामोल्लेख को स्वीकार करते हैं। भारतीय ऐतिहासिक एवं दार्शनिक विद्वान् डॉ० राधाकृष्णन् एवं पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री के मतानुसार यजुर्वेद में ऋषभ, अजित और अरिष्टनेमि का उल्लेख मात्र ही प्राप्त होता है। विष्णुसहस्रनाम (महाभारत) में श्रेयस्, अनन्त, धर्म, शान्ति और सम्भव पद मिलते हैं। जैनधर्म में सम्भव तृतीय तीर्थकर हैं तथा श्रेयस् या श्रेयांस (ग्यारहवें), अनन्त (चौदहवें), धर्म और शान्ति (15-16वें) तीर्थकर हैं। संघदासगणिकृत वसुदेवहिण्डी और आचार्य हेमचन्द्र रचित त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित० में एक घटना का उल्लेख है जो 16वें तीर्थकर शान्तिनाथ और उनके पूर्वभव से सम्बन्धित है। यहाँ उल्लिखित है कि उन्होंने उनके मेघरथ (जन्म) के रूप में अपना मांस देकर एक कबूतर के प्राणों की रक्षा की थी। यही घटना शिविराजा के उपाख्यान के रूप में महाभारत में जीमूतवाहन और बौद्धग्रन्थ चरियापिटकरी में बोधिसत्व शिवि के रूप में उल्लेखित मिलती है। नामों की भिन्नता को छोड़कर पौराणिक घटना का साम्य तो स्पष्ट ही है। रसगंगाधरकार पण्डितराज जगन्नाथ ने भी इस घटना को भिन्न रूप में उद्धृत किया है। कुंथु एवं अरहनाथ शान्तिनाथ की तरह पहले चक्रवर्ती सम्राट हुए तदनन्तर चार घातियाकर्मों का विनाश कर तीर्थकर हुए। इनकी विशिष्ट जानकारी वैदिक ग्रन्थों में अधिक मिलती। अरह का अर्थ है पापरहित जो बौद्ध निकाय ग्रन्थों विशेषकर विसुद्धिमग्ग

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