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78 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 1 / जनवरी-मार्च 2012 हैं फिर भी प्रथम से द्वितीय प्रतिमा कठिन है क्योंकि इसकी समय-सीमा अधि : क है तथा आहारविधि के नियम कठोर होते हैं। 3. त्रिमासिकी- इसमें तीन मास तक तीन दत्तियाँ ली जाती हैं। 4. चतुर्मासिकी- इसमें चार दत्तियाँ चार मास तक ली जाती हैं। 5. पंचमासिकी- इसमें पाँच दत्तियाँ पाँच मास तक ली जाती हैं। 6. षड्मासिकी- इसमें छः दत्तियाँ छः मास तक ली जाती हैं। 7. सप्तमासिकी- इसमें सात दत्तियाँ सात मास तक ली जाती हैं। 8. प्रथम सप्त अहोरात्रिकी- इसमें श्रमण एक दिन का निर्जल उपवास (चतुर्भक्त) करके नगर के बाहर जाकर उत्तानासन, पाश्र्वासन या निषद्यासन द्वारा सात दिन-रात का कायोत्सर्ग करता है। मल-मूत्र की बाधा होने पर उसे विसर्जित कर पुनः उसी स्थान पर उसी आसन से बैठ सकता है। अन्य किसी भी प्रकार की बाधा या उपसर्ग होने पर ध्यान से विचलित नहीं होता है। १. द्वितीय सप्त अहोरात्रिकी- यह भी पूर्ववत् सात दिन-रात की है। इसमें दण्डासन, लकुटासन अथवा उत्कटुकासन से कायोत्सर्ग ध्यान किया जाता है। 10. तृतीय सप्त अहोरात्रिकी- यह भी सात दिन-रात की है। इसमें गोदोहनिकासन, वीरासन अथवा आम्रकुब्जासन से कायोत्सर्ग (आत्म-ध्यान), किया जाता है। 11. अहोरात्रिकी- यह एक अहोरात्रिकी (24 घण्टे = सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक) की प्रतिमा है। इसमें साधक दो दिन तक निर्जल उपवास (षष्ठभक्त = बेला) करके नगर के बाहर चौबीस घण्टे तक खड्गासन (दोनों पैरों को संकुचित करके तथा दोनों भुजाओं को जानु-पर्यन्त जांघ तक लम्बी करके) से ध्यान लगाता है। 12. रात्रिकी- इस प्रतिमा का प्रारम्भ अष्टम भक्त (तीन दिन तक चारों प्रकार के आहार का त्याग रूप तेला) तप से किया जाता है। पूर्ववत् खड्गासन से नगर के बाहर कायोत्सर्ग (ध्यान) करता है। इसमें शरीर को थोड़ा सा आगे झुकाकर किसी एक पुद्गल द्रव्य पर अनिमेष दृष्टि लगाता है और अपनी इन्द्रियों को भी गुप्त कर लेता है। इस ध्यान (निर्विकल्प समाधि) में ध्याता और ध्येय दोनों एकाकार हो जाते हैं। यह अति कठिन ध्यान है। इसमें असावधानी बरतने पर बहुत अनिष्ट (पागलपन, भयंकर रोग, धर्मच्युति) होता है और यदि सम्यक् साध न कर लेता है तो क्रमशः अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। इस तरह साधु का यह प्रतिमायोग आयारदसा की छठी दसा में बतलाया गया है। यही श्वेताम्बर मान्यता है।