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76 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 1 / जनवरी-मार्च 2012 करना, गरिष्ठ कामवर्धक भोजनपान करना आदि भी वर्जित है। पाँचों इन्द्रियों का संयम जरूरी है। श्वेताम्बरों में इसका आराधनाकाल 1 दिन, 2 दिन, 3 दिन तथा छह मास है। जीवन-पर्यन्त का भी विधान है। 7. सचित्ताहारवर्जन प्रतिमा- सचित्त (सजीव या हरी) वनस्पति का तब तक आहार न करना जब तक वह अचित्त (जीव-रहित) न हो जाए। पकाकर या सुखाकर सचित्त को अचित्त करने पर प्राणि-संयम तो नहीं होता परन्तु इन्द्रिय-संयम होता है। कुछ वनस्पतियाँ सप्रतिष्ठ (अगणित-अनन्तकाय जीव वाली) होती हैं और कुछ अप्रतिष्ठ (एक जीव वाली) होती हैं। जिन्हें तोड़ने पर समान रूप से दो भाग हो जाएँ उन्हें सप्रतिष्ठ कहते हैं। इनका छिलका मोटा उतरता है तथा ऊपर की धारियाँ (शिराएँ) स्पष्ट नहीं होती। अप्रतिष्ठ वनस्पतियाँ वे हैं जो तोड़ने पर टेढ़ी-मेढ़ी टूटें, छिलका पतला हो, धारियाँ स्पष्ट हों तथा अलग-अलग फाँकें हों। इस प्रतिमा का साधक खेती आदि आरम्भ-क्रियाओं का त्याग नहीं करता है। श्वेताम्बरों में इसकी आराधना का उत्कृष्ट काल 7 मास
8. स्वयं आरम्भवर्जन प्रतिमा (आरम्भत्याग)- प्रतिमाधारी इसमें बच्चों के बड़े हो जाने पर आजीविका हेतु खेती, व्यापार आदि क्रियाएँ स्वयं नहीं करता परन्तु दूसरों से करा सकता है। संपत्ति पर अपना अधिकार रखता है। श्वेताम्बरों में इसकी आराधना-अवधि एक दिन से लेकर 8 मास है। १. भृत्यप्रेष्य आरम्भवर्जन प्रतिमा (प्रेष्य-परित्याग या परिग्रह-त्याग)इसका साधक दूसरों से भी आरम्भ क्रियाएँ नहीं कराता। आरम्भ होने की अनुमति का त्याग न होने से उसके उद्देश्य से बनाये गए आहार को ले सकता है। यहाँ वह मोह छोड़कर परिग्रहत्यागी हो जाता है। सलाह मांगने पर उचित सलाह दे सकता है। श्वेताम्बरों में इसका आराधनाकाल एक दिन से लेकर 9 मास तक है। 10. उद्दिष्ट-भक्तवर्जन प्रतिमा- इसमें अपने लिए तैयार भोजन आदि का साधक (उपासक) त्याग कर देता है। लौकिक कार्यों से पूर्ण विरत हो जाता है, सलाह भी नहीं देता है। उस्तरे से बाल मुण्डित करा सकता है। चोटी रख सकता है। इसकी अवधि एक दिन से लेकर 10 मास तक है। दिगम्बर परम्परा में इस प्रतिमा का नाम अनुमतित्याग है और इस प्रतिमा का धारी लौकिक कार्यों की सलाह देना भी बन्द कर देता है। प्रायः मन्दिर या उपाश्रय में रहता है। निमंत्रण स्वीकार कर सकता है।