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12 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 1 / जनवरी-मार्च 2012 बन्धु-बान्धवों की सहायता एवं अतिथि सत्कार को सम्मिलित किया गया है चारित्रसार" के अनुसार जिनपूजा, गुरुसेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दान- ये छः कर्म गृहस्थों के आर्य कर्म कहलाते हैं। संयम, स्वाध्याय, उपवास, व्रतों में लीनता, धर्मात्मा लोगों पर प्रेम, विपत्तिग्रस्त लोगों पर करुणाबुद्धि, पूर्वजों की कीर्ति की रक्षा, बन्धु-बान्धवों की सहायता, लोगों के दु:ख दूर करना, आत्मोन्नति आदि विभिन्न शास्त्रों में श्रावक के कर्त्तव्य गिनाये गये हैं। इस प्रकार स्व अर्थात् आत्म के साथ-साथ परिवार, समाज एवं राष्ट्र के प्रति भी श्रावक का कर्त्तव्य है। श्रावक का आचरण नीतियुक्त, न्याययुक्त, समाजोपयोगी, राष्ट्रपोषक एवं सात्त्विक प्रवृत्ति से युक्त होना चाहिए। समाज के कल्याण के लिए दान आवश्यक है। इस कलियुग में मानव के कल्याण के लिए दान को सबसे सुगम साधन बताया गया है। राजर्षि मनु ने दान की महिमा बताते हुए कहा है कि सत्य युग में तपस्या, त्रेता में ज्ञान, द्वापर में यज्ञ तथा कलियुग में मात्र दान का ही महत्त्व है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा हैप्रगट चारि पद धर्म के कलिमहुँ एक प्रधान। जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान ।। 7.103(ख) श्रावक को सबकी रक्षा के भाव से दयाभाव रखना चाहिए। जब प्राणिमात्र के प्रति हित की भावना तथा परपीड़ा से करुणाविगलित हृदय में त्यागभाव आयेगा तो उससे दान देने की प्रवृत्ति हो जायेगी। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अकाल, अतिवृष्टि भूकम्प, अग्निप्रकोप, रोगादि का प्रकोप, भूखा, रोगी, अतिवृद्ध आदि को अन्न जल, औषध, आवास आदि का दान करना चाहिए। सम्पत्ति की सार्थकता उसके परहित में उपयोग में है। परहित में दान विश्वकल्याण के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। महाभारत में पृथ्वी सात स्तम्भों के सहारे टिकी बताई गई है उनमें दानदाता भी एक हैगोभिर्विप्रैश्च वेदैश्च सतीभिः सत्यवादिभिः। अलुब्धैर्दानशीलैश्च सप्तभिर्धार्यते मही।।। दान का महत्त्व बताते हुए कहा गया है1- धन का संग्रह करने से गौरव नहीं बढ़ता है। दान देने से गौरव बढ़ता है। जल देने वाले मेघ का स्थान ऊंचा है परन्तु जल का संचय करने वाला सागर नीचे ही रहता हैगौरवं प्राप्यते दानान्न न तु वित्तस्य संचयात्। स्थितिरुच्चैः पयोदानां पयोधीनामधः स्थितिः।।