Book Title: Sramana 2012 01
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 28
________________ भेदविज्ञान द्वारा श्रावक-लोभसंवरण : 21 को वास्तविक अर्थ में नहीं जानता। जो जड़ अनात्मा है, उसे आत्मा मान लेते हैं। आत्मा और शरीरादि दोनों अनादि काल से साथ-साथ रह रहे हैं। यह शरीर भी जड़ है। परन्तु अज्ञानवश इस शरीर को ही आत्मा मानकर हमारी सारी प्रवृत्तियां हो रही हैं। शरीर के रोग कष्ट, सुख-दुःख को जीव आत्मा का या अपना कष्ट मान ले रहा है। डा. सागरमल जैन के अनुसार जैसे उष्ण जल में रही हुई उष्णता, जल में रहते हुए भी जल का स्वरूप नहीं है क्योंकि वह अग्नि के संयोग के कारण है। वैसे ही लोभ-कषायादि भाव आत्मा में होते हुए भी आत्मा का स्वरूप नहीं है। यह अनुभूति ही जैन-साधना का सार है। पर पदार्थों आदि से अपने को भिन्न मान लेना ही भेदविज्ञान है। इस प्रसंग में आचारांग का कथन है- जो स्व से अन्यत्र दृष्टि नहीं रखता वह स्व से अन्यत्र रमता भी नहीं है और जो स्व से अन्यत्र रमता नहीं है वह स्व से अन्यत्र दृष्टि भी नहीं रखता है। आत्म और अनात्म विवेक ही भेदविज्ञान है। इस भेदविज्ञान के प्राप्त होते ही पर पौद्गलिक जड़ वस्तुओं में जीव की आसक्ति नहीं रहती। शरीर, ध न, कुटुम्ब सभी से अपने को भिन्न अनुभव करने लगता है। सांसारिक वस्तुएं मेरी हैं ही नहीं भ्रमवश उन्हें अपना मान लिया है। आचारांगसूत्र में कहा गया है- विषयार्थी पुरुष मेरी माता, मेरे पिता, मेरे भाई, मेरे बहन, मेरी पत्नी, मेरी पुत्री, मेरी पुत्रवधू, मेरा सखा, स्वजन- सम्बन्धी आदि हैं- इस प्रकार मानकर विषयों में आसक्त होता है। चैतन्यस्वरूप, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र और अनन्तवीर्य स्वभाववाली आत्मा इन सबसे भिन्न है। इस तरह की भेदज्ञान की अन्तर्दृष्टि के निरन्तर अभ्यास से आत्मा का पर से ममत्व दूर हो जाता है। वह अपनी आत्मा को केवल, ज्ञाता-द्रष्टा समझने लगता है। कविवर बनारसीदास ने भेदविज्ञान की प्राप्ति में धोबी के वस्त्र का दृष्टान्त दिया हैजैसे कोई मनुष्य धोबी के घर जावे और दूसरे का वस्त्र धारण कर उसे अपना मानने लगे परन्तु उस वस्त्र का स्वामी देखकर कहे कि यह तो मेरा वस्त्र है। तब वह मनुष्य अपने वस्त्र का चिह्म देखकर वस्त्र के त्याग की बुद्धि करता है। उसी प्रकार कर्म संयोगी जीव परिग्रह के ममत्व से विभाव में रहता है अर्थात् शरीर आदि को अपना मानता है। परन्तु भेद विज्ञान होने पर जब स्व-पर का विवेक हो जाता है तो रागादि भावों से भिन्न अपने निज स्वभाव को ग्रहण करता श्रमणसंघीय आचार्य पूज्य डा. शिवमुनि जी 2 का यह मूलमन्त्र 'खुली आंखों से भेदज्ञान बन्द आंखों से गहरा ध्यान' श्रावक की वीतरागता का अचूक अस्त्र है।

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