Book Title: Sramana 2012 01
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 29
________________ 22 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 1 / जनवरी-मार्च 2012 भेदविज्ञान की साधना के लिए अन्तर मन में यहां तक कि खुली आंखों से भी सदैव यह चिन्तन करना चाहिए कि मैं शुद्ध आत्मा हूँ, नाम, पद, प्रतिष्ठा, सांसारिक सम्बन्ध- ये सभी शरीर के हैं । बन्द आंखों से गहरा ध्यान। मैं कौन हूं, मेरा स्वरूप क्या है? आत्मा के स्वाभाविक गुण क्या हैं? मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है? इन शाश्वत प्रश्नों का समाधान ध्यान के द्वारा प्राप्त होता है। पूज्य आचार्य डॉ. शिवमुनि83 जी के शब्दों में, आनन्द हमारा स्वभाव है, शान्ति हमारे भीतर है, ज्ञान हम स्वयं हैं, फिर भी आज का मनुष्य क्यों दुःख एवं विषाद के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है? इसका समाधान यही है कि हम प्रत्येक श्वांस में भेद ज्ञान को जीयेगें। आचार्य कुन्दकुन्द विरचित नियमसार के परमार्थ प्रतिक्रमण अधिकार की पांच गाथाओं पंचरत्न' में भेदज्ञान का स्वरूप वर्णित किया गया है। ये गाथाये हैंणाहं नारय भावो, तिरियत्थो मणुवदेवपज्जावो। कत्ता ण हि कारइदा, अणुमंता व कत्तीण।।77।। णाहं मग्गण ठाणो, णाहं गुणठाण जीवट्ठाणो य। कत्ता ण हि कारइदा, अणुमंता णेव कत्तीणं।।78।। णाहं बालो बुड्ढो, ण चेव तरुणो ण कारणं तेसिं। कत्ता ण हि कारइदा, अणुमंता णेव कत्तीण।।79।। णाहं रागो दोज़ो, ण चेव मोहो ण कारणं तेसिं। कत्ता ण हि कारइदा, अणुमंता व कत्तीण।।80।। णाहं कोधो माणो, ण चेव माया ण होमि लोहो हं। कत्ता ण हि कारइदा, अणुमंता णेव कत्तीण।।81।। इन गाथाओं का अभिप्राय यह है कि मैं नारक पर्याय, तिर्यच पर्याय, मनुष्य पर्याय अथवा देव पर्याय नहीं हूँ। मैं मार्गणा स्थान नहीं हूँ, गुणस्थानरूप अथवा जीवसमास रूप नहीं हूँ। मैं बालक नहीं हूँ, वृद्ध नहीं हूँ, तरुण रूप नहीं हूँ और उनका कारण भी नहीं हूँ। मैं रागरूप नहीं हूँ, द्वेषरूप नहीं हूँ, मोहरूप नहीं हूँ और उनका कारण भी नहीं हूं। मैं क्रोधरूप नहीं हूँ, मानरूप नहीं हूँ, मैं माया रूप नहीं हूँ और मैं लोभरूप नहीं हूँ। मैं इनका करने वाला, कराने वाला और करते हुए का अनुमोदन करने वाला नहीं हूँ। वृत्तिकार के अनुसार इन गाथाओं में आचार्य ने शुद्ध आत्मा के सम्पूर्ण कर्तृत्व के अभाव का प्रतिपादन किया है। इन गाथाओं को पंचरत्न की संज्ञा दी गई है क्योंकि इन गाथाओं में प्रतिपादित भेद विज्ञान के द्वारा ही साधक सम्पूर्ण विषय कषायों से छूट सकते हैं और अपनी आत्मा में अपने को स्थिर कर सकते हैं।

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