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30 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 1 / जनवरी - मार्च 2012
हानिकारक है। अतः खान-पान में समय, मात्रा आदि का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है। वे लिखते हैं
अमृतं विषमिति चेतत् सलिलं निगदन्ति विदिततत्त्वार्थः ।
युक्त्या सेवितममृतं विषमेतदयुक्तितः पीतम् ।।'
सेवन योग्य पथ्यजल और त्याज्यजल का निर्देश करते हुए ग्रन्थकार ने जल सम्बन्धी अपने परिष्कृत ज्ञान का परिचय दो श्लोकों में निम्न प्रकार से दिया है2अव्यक्तरसगन्ध यत्स्वच्छं वातातपाहतम्।
प्रकृत्येनाम्बु तत्पथ्यमन्यत्र क्वथितं पिबेत् || 371
वारि सूर्येन्दुससिद्धमहोरात्रात्परं त्यजेत् ।
दिवासिद्धं निशि त्याज्यं निशि सिद्धं दिवा त्यजेत् 113721
अर्थात् जिसका रस व गन्ध अव्यक्त प्रकट रूप से नहीं जाना जाता हो, जो स्वच्छ हो, वायु और आतप (धूप) से आहत हो वह जल स्वभाव से ही पथ्य होता है। इसके विपरीत अर्थात् व्यक्तरस और गन्ध वाला, मलिन तथा वायु में आतप नहीं लगाया गया जल उबालकर पीना चाहिए। इसी प्रकार दिन में उबाला हुआ जल रात्रि में नहीं पीना चाहिए। केवल दिन में ही पीना चाहिए और रात्रि में उबाला हुआ जल दिन में नहीं पीना चाहिए, केवल रात्रि में ही पीना चाहिए । यहाँ पर एक विशेष प्रकार के जल का उल्लेख किया गया है जो "सूर्येन्दु संसिद्ध जल" कहलाता है। इसकी विधि यह है कि जल से भरा हुआ घड़ा पहले दिनभर धूप में खुला हुआ रखना चाहिए और पश्चात् रातभर चन्द्रकिरणों में खुला रखना चाहिए। इसी प्रकार सूर्य की किरणों से संतप्त और रात्रि में चन्द्र की किरणों से शीतल जल " सूर्येन्दु संसिद्ध जल" कहलाता है। इस जल का सेवन अगले दिन रात-भर करना चाहिए। उसके पश्चात् वह त्याज्य है। आयुर्वेद शास्त्र में इस जल को " हंसोदक" जल कहा गया है और यह केवल शरद ऋतु में ही सिद्धि योग्य एवं सेवनीय होता है। इस जल के विषय में महर्षि चरक का निम्न कथन द्रष्टव्य हैदिवासूर्याशुसंतप्तं निशिं चन्द्रांशुशीतलम् । कालेन पक्वं निर्दोषमगस्त्येनाविषी कृतम् ॥ हंसोदकमिति ख्यातं शारदं विमलं शुचिः । स्नानपानावगाहेषु शस्यते तद्यथा मृतम् ॥
अर्थात् दिन में सूर्य की किरणों से संतप्त और रात्रि में चन्द्रमा की किरणों से शीतल किया हुआ, काल स्वभाव से परिपक्व, अतः दोषरहित और अगस्त्य नक्षत्र के प्रभाव से विष रहित किया गया जल "हंसोदक" के नाम से जाना