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36 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 1 / जनवरी-मार्च 2012 2. गेहँ आदि पदार्थों के खाने से उत्पन्न। 3. दाल आदि दो दल वाले पदार्थों के सेवन से उत्पन्न। 4. घृत आदि स्निग्ध पदार्थों के सेवन से उत्पन्न। इस चार प्रकार के अजीर्ण को दूर करने के लिए चार उपायों का प्रतिपादन भी यशस्तिलक में किया गया है जो निम्न प्रकार है1. जौ आदि से उत्पन्न अजीर्ण को दूर करने के लिए ठंडा पानी पीना चाहिए। 2. गेहूँ आदि से उत्पन्न अजीर्ण को दूर करने के लिए क्वथित जल (गरम जल) पीना चाहिए। 3. दाल आदि द्विदल पदार्थों के सेवन से उत्पन्न अजीर्ण को दूर करने के लिए अवन्तिसोम (कांजी) पीना चाहिए। 4. घृत आदि के सेवन से उत्पन्न अजीर्ण के लिए कालसेय (तक्र) पीना चाहिए। इसी को सोमदेव ने निम्न प्रकार से निबद्ध किया है-25 यवसमिथविदाहिष्वम्बुशीतं निषेव्यं, क्वथितमिदमुपास्यं दुर्जरेऽन्ने च पिषटे। भवति विदलकालेऽवन्तिसोमस्य पानं, घृतविकृतिषु पेयं कालसेयं सदैव ।। इस प्रकार यशस्तिलक चम्पू काव्य के तृतीय आश्वास में श्लोक संख्या 322 से 374 तक विविध छन्दों में स्वास्थ्य सम्बन्धी हिताहित विवेक का प्रतिपादन प्रांजल भाषा के माध्यम से जिस रूप में किया गया है उससे जहाँ ग्रन्थ की प्रांजलता लक्षित होती है वहीं ग्रन्थकर्ता के आयुर्वेद विषयक परिपूर्ण एवं परिपक्व ज्ञान का आभास सहज ही हो जाता है। क्योंकि यह सम्पूर्ण वर्णन आयुर्वेद के स्वास्थ्य सम्बन्धी मौलिक सिद्धान्तों पर आधारित है। आयुर्वेद शास्त्र मात्र चिकित्सा विज्ञान या वैद्यक शास्त्र ही नहीं है, अपितु वह सम्पूर्ण जीवन विज्ञान शास्त्र है जिसमें मानव जीवन की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं नैतिक प्रवृत्तियों की विवेचना सूक्ष्मता एवं गम्भीरतापूर्वक की गई है। मानव जीवन के प्रत्येक क्षण की प्रवृत्तियाँ आयुर्वेदशास्त्र में प्रतिपादित हैं। अतः यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि वह आयुर्वेदशास्त्र मानव जीवन के सर्वाधिक निकट है। महाकवि सोमदेव ने इस विषय को जिस प्रांजलता एवं प्रौढ़ता के साथ अपने काव्य में निबद्ध किया है वह उनके भाषा ज्ञान की प्रौढ़ता का द्योतक है। प्रस्तुत चम्पूकाव्य में लोकहित की भावना को दृष्टिगत रखते हुए ही सम्भवतः आयुर्वेदीय स्वस्थवृत्त की इस प्रकार की प्रस्तुति की गई है। इस प्रस्तुति में कवि ने अपनी जिस मौलिक काव्य प्रतिभा एवं सारगर्भिता का परिचय दिया है वह