Book Title: Sramana 2012 01
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 42
________________ यशस्तिलक चम्पू में आयुर्वेद : 35 स्नानसोमदेव ने स्नान की उपयोगिता प्रतिपादित करते हुए उससे होने वाले लाभ और उसके गुणों का सुन्दर वर्णन किया है जो आयुर्वेद में प्रतिपादित सिद्धान्तों से पूर्ण मेल खाता है। यथाआयुष्यं हृदयप्रसादि वपुषः कण्डूक्लमच्छेदि च। स्नानं देव यथर्तुसेवितमिदं शीतैरशीतैर्जलैः।। अर्थात् ऋतु के अनुसार ठंडे या गरम जल से किया गया स्नान आयु को बढ़ाता है, हृदय को प्रसन्न करता है तथा शरीर की खुजली और थकावट को दूर करता श्रमद्यमार्तदेहानामाकुलेन्द्रियचेतसाम् । तव देवद्विषां सन्तु स्नानपानाशनक्रियाः।। अर्थात् परिश्रम और धूप से पीड़ित शरीर वाले इन्द्रिय व चित्त की व्याकुलता वाले आपके शत्रुओं के स्नान, खान, पान की क्रिया हों। अभिप्राय यह है कि जो शारीरिक श्रम व धूप से पीड़ित एवं जिनकी इन्द्रियों एवं मन व्याकुल हों उन्हें स्नान, खान, पान नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने पर अनेक उपद्रव हो सकते हैं, जो निम्न प्रकार हैंदूग्मान्ध भागात्तपितोऽम्बुसेवी श्रान्तः कश्ताशी वमनज्वराईः । भगन्दरी स्यन्दविबन्धकाले गुल्मी जिहत्सुविहिताशनश्च॥ अर्थात् धूप में से आकर तत्काल पानी पीने वाला इष्टिमांथ से पीड़ित होता है, परिश्रम के कारण थका हुआ व्यक्ति यदि तत्काल भोजन करता है तो वमन और ज्वर के योग्य होता है। मल-मूत्र के वेग को रोकने वाला भगन्दर और गुल्म रोग से पीड़ित होता है। विधिपूर्वक स्नान करना और तत्पश्चात् करणीय कार्यों की सुन्दर विवेचना सोमदेव द्वारा यशस्तिलक में की गई है। देखिएस्नानं विधाय विधिवत्कश्तदेव कार्यः संतर्पितोऽतिथिजलः सुमनाः सुवेषः। आप्रवृतो रहसि भोजनकृतथा स्यात् सायं यथा भवति भुक्तिकरोऽभिलाषः।। अर्थात् स्नान करने के पश्चात् विधिपूर्वक देवपूजा आदि कार्य करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें और प्रसन्न मन से अतिथि सत्कार करके आप्त विश्वस्त व्यक्तियों के साथ उतना भोजन करें जिससे सायंकाल फिर भूख लग जाय। (इससे रात्रिभोजन का निषेध होता है।) सोमदेव ने यशस्तिलक चम्पू में अजीर्ण चार प्रकार का बतलाया है। यथा1. जौ इत्यादि हल्के पदार्थों के खाने से उत्पन्न।

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