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यशस्तिलक चम्पू में आयुर्वेद : 33 मक्खियाँ नहीं बैठती। जिस प्रकार नमक डालने से अग्नि चटचटाती है उसी प्रकार विषयुक्त अन्न के सम्पर्क से भी अग्नि चटचटाने लगती है।" पुनः गर्म किया हुआ भोजन, अंकुर निकला हुआ अन्न तथा दस दिन तक काँसे के बर्तन में रखा गया घी नहीं खाना चाहिए। दही व छाछ के साथ केला, दूध के साथ नमक, कांजी के साथ कचौड़ी-जलेबी, गुड़, पीपल, मधु तथा मिर्च के साथ काकमाची (मकोय), मूली के साथ उड़द की दाल, दही की तरह गाढ़ा सत्तू तथा रात्रि में कोई भी तिल विकार (तिल से बने पदार्थ) नहीं खाना चाहिए।12 . घृत एवं जल को छोड़कर रात्रि में बने हुए पदार्थ, केश या कीटयुक्त पदार्थ तथा फिर से गरम किया हुआ भोजन नहीं करना चाहिए। अत्यशन, लघ्वशन, समशन और अध्यशन नहीं करना चाहिए। प्रत्युत बल और जीवन प्रदान करने वाला उचित भोजन करना चाहिए। अत्यशन- भूख से अधिक खाना। लघ्वशन- भूख से कम खाना। समशन- पथ्य और अपथ्य दोनों खाना। अध्यशन- खाये हुए भोजन पर पुनः भोजन करना। इन चारो अशन का त्याग करना अभीष्ट रहता है। इसके पश्चात् सज्जन नामक वैद्य द्वारा यशोधर महाराज को उपदेश दिया गया कि भोजन के उपरान्त मनुष्य को कौन से कार्य नहीं करने चाहिए। यथाकामकोपातपायासयानवाहनवह्नयः। भोजनान्नतरं सेव्या न जातु हितमिच्छिता ।।14 अर्थात् स्वास्थ्य हित की इच्छा रखने वाले मनुष्य को भोजन करने के उपरान्त कभी भी स्त्री-सेवन, क्रोध, धूप सेवन, परिश्रम करने वाले कार्य, शीघ्रगमन, घोड़े, गाड़ी आदि की सवारी और आग तापना- ये कार्य नहीं करना चाहिए। आयुर्वेदशास्त्र में भी इन्हीं कार्यों का निषेध किया गया है। आचार्य वाग्भट्ट ने भोजन के बाद निम्न कार्य करने का निषेध किया है-15 सर्वश्च भाराध्वशयनं त्यजेत्। पीत्वा, भुक्त्वा तपं वहिनं यानं प्लवनवाहनम्।।-अष्टांग हृदय, सूत्रस्थान, 8/54 अर्थात् सभी स्वस्थ या रोगी मनुष्य अनुपान पीकर बोलना, मुसाफिरी और शयन करना छोड़ देवें। भोजन करके, भोजन के बाद धूपसेवन, अग्नितापन, शीघ्रगमन, तैरना और वाहन की सवारी करना छोड़ देवें।