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24 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 1 / जनवरी - मार्च 2012
अतः श्रावक की वीतरागता का मूल है भेदविज्ञान । कविवर बनारसीदास का कथन यहां अत्यन्त प्रासंगिक है कि भेदविज्ञानरूपी वृक्ष जैसे ही सम्यक्त्व की धरती पर उगता है वैसे ही भेदविज्ञानी का यश स्वभावतः चारों दिशाओं में फैल जाता है। दया, वत्सलता, सुजनता, आत्म-निन्दा, समता, धर्मराग, मनप्रभावना, त्याग, धैर्य, प्रवीणता आदि अनेक गुण गुणमंजरी से गुथे रहते हैं साथ ही विरागता भी उत्पन्न होती है। बाह्य वस्तुओं में आसक्ति तोड़ने का सर्वसुलभ अमोघ उपाय है श्रावक द्वारा भेदज्ञान का अभ्यास । प्रत्येकं श्रावक का अन्ततः लक्ष्य योगीन्दुदेव'" द्वारा परमात्मप्रकाश में कथित यह उपदेश होना चाहिए - घरु परियणु लघु छंडि अर्थात् घर और परिजनों का शीघ्र त्याग करो ।
इस प्रकार लोभ जो सभी दुर्गुणों की जननी है पर सन्तोष से विजय प्राप्त करनी चाहिए | श्रावक के मन में जीवमात्र के प्रति वात्सल्य और करुणा होनी आवश्यक है। करुणा के अभाव में धर्म से श्रावक निष्ठुर हो जाता है। निश्चय ही यदि श्रावक भेदविज्ञान रूपी अन्तर्चक्षु से आत्मा और पर पदार्थों में भेद का अभ्यास आरम्भ कर दे तो वह व्यक्तिगत ही नहीं पूरे समाज और राष्ट्र के कल्याण में प्रभावकारी भूमिका निभा सकेगा ।
सन्दर्भ
1. तित्थयरे भगवंते अणुत्तरपरक्कमे अमियनाणी - गाथा 80, आवश्यकनिर्युक्ति, भद्रबाहु, निर्युक्तिसंग्रहः, सम्पा. विजयामृतसूरी, हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला 189, लाखाबावल, शान्तिपुरी, महाराष्ट्र, 1989, पृ09
2. तीर्थनामचातुर्वर्णः श्रमणसंघ :- आवश्यकनिर्युक्तिमलयगिरिवृत्ति, गाथा 233, पृ.
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3. एहु धम्मु जो आयरइ बंभणु सदृदु वि कोइ । सो सावउ किंसावयह अण्णु किं सिरि मणि होइ । - सावयधम्मपण्णत्ती, 761, द्रष्टव्य, जैन लक्षणावली भाग 3, वीर सेवा मन्दिर, दरियागंज, दिल्ली 1973, पृ. 1069,
4. मूलोत्तरगुणनिष्ठाधितिष्ठन् पंचगुरुपदशरण्यः । दान- यजनप्रधानो ज्ञान- सुधां श्रावकः पिपासुः स्यात् । अधिकार 1 श्लोक 15, धर्मामृत (सागार), पं. आशाधर, सम्पा. एवं अनु. पं. कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला, संस्कृत ग्रन्थांक 70, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली 1944,
5. न्यायोपात्तधनो यजन् गुणगुरून् सद्गीतिस्त्रिवर्ग भजन्नन्योन्यानुगुणंतवर्हगृहिणीस्थानालयो ह्रीमय: । - अधिकार 1, श्लोक 11, वही,
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6. तत्त्वार्थवार्तिक, भट्ट अकलंकदेव, सम्पा. प्रो. महेन्द्रकुमार जैन, ज्ञानपीठमूर्ति देवी जैन ग्रन्थमाला सं. 11, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, 1944, 6, 135