________________
भेदविज्ञान द्वारा श्रावक-लोभसंवरण : 19 1. लोभेणासाधत्ता- लोभ के कारण मनुष्य आशा से ग्रस्त होता है। यह वस्तु मेरी होगी इस प्रयोजन से नाना प्रकार के पाप करता है। 2. लोभेणं णरो ण विगणेदि2- लोभ के कारण व्यक्ति स्वयं को एवं अपने आप को भी कुछ नहीं गिनता है। 3. लोभो तणे वि जादा-तृण मात्र पर भी लोभ विविध पाप का कारण बनता
है।
4. तेलोक्केण वि चित्तस्स णित्वुदी णत्थि-लोभी का चित्त तीनों लोकों की सम्पदा प्राप्त करने पर भी तृप्त नहीं होता। 5. सव्वे वि गंथदोसा-सभी प्रकार के ग्रन्थ-दोष लोभ के कारण ही उत्पन्न होते हैं। लोभ से ही मनुष्य मैथुन, हिंसा, झूठ और चोरी जैसे कार्य को करता है। सभी पापनन्य क्रियायें लोभ से ही होती हैं। जमदग्नि के पुत्र परशुराम की गायों को ग्रहण करने के कारण राजा कार्तवीर्य लोभदोष से समस्त परिवार और सेना के साथ मृत्यु को प्राप्त हुआ। परशुराम ने सबको मार डाला। 6. लोभपत्तेलोभी -लोभ की उपस्थिति होने पर असत्यवचन से ही व्यक्ति अपनी सत्य की क्रियायें करता है। 7. लोभो सव्वविणासणो'-लोभ सभी सद्गुणों का विनाश करने वाला होता है।
लोभ या तृष्णा-निवारण की अनिवार्यता आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में कहा है कि मनुष्य की आशा का जैसे-जैसे शरीर और परिग्रह में विस्तार होता है वैसे-वैसे मोह कर्म की गांठ दृढ़ होती है। इस आशा या तृष्णा को निरन्तर रोका नहीं जाये तो यह निरन्तर समस्त लोक पर्यन्त विकसित होती रहती है और इससे इसका मूल दृढ़ होता है फिर इसका काटना आवश्यक होता है। लोभ-संवरण का माहात्म्य ज्ञानार्णव' में कहा गया है कि जो पुरुष समस्त तृष्णाओं का निराकरण करके तृष्णा रहितत्व का अवलम्बन करता है उसका मन किसी भी परिग्रह रूपी कर्दम से नहीं लिप्त होता है। जिस पुरुष की आशा या तृष्णा नष्ट हो गई है उसके इस लोक में क्या-क्या मनोवांछित सिद्ध नहीं हुए अर्थात् सभी मनोवांछित सिद्ध हुए। तृष्णा बहुत दुःखदायी है। प्रत्येक प्राणी के सामने तृष्णा रूपी गर्त खुदा हुआ है जिसमें समस्त संसार अणु के समान है फिर किसके लिये कितना प्राप्त हो सकता है? अर्थात् सबकी मनोभिलाषा पूर्ण नहीं हो सकती है इसलिए हे संसारी प्राणियों तुम्हारी इच्छा करना व्यर्थ है। आचार्य कुन्दकुन्द विरचित बोधपाहुड' की