Book Title: Sramana 2012 01
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 24
________________ भेदविज्ञान द्वारा श्रावक-लोभसंवरण : 17 धवला"के अनुसार 'बाह्य पदार्थों में यह मेरा है' इस प्रकार की बुद्धि, आचार्य सोमदेवसूरि के नीतिवाक्यामृतम्' और आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र के अनुसार सत्पात्र को धन न देना अथवा दूसरे के धन को ग्रहण करना तो आचार्य अमृतचन्द्रसूरि के अनुसार उपयुक्त स्थल पर धन व्यय न करना लोभ है। जैनाचार्यों ने लोभ और उससे सम्बद्ध अन्य मनोवृत्तियों का भी चित्रण किया है जो इस प्रकार हैं:लोभ- संग्रह करने की वृत्ति, इच्छा- अभिलाषा, मूर्छा- तीव्रतम संग्रह वृत्ति, कांक्षा- प्राप्त करने की आशा, गृद्धि- प्राप्त वस्तु में आसक्ति होना, तृष्णासंग्रह की इच्छा, वितरण की विरोध वृति, मिथ्या-विषयों का ध्यान, अभिध्यानिश्चय से विचलित हो जाना, आशंसना- इष्ट-प्राप्ति की इच्छा रखना, प्रार्थना- अर्थ आदि की याचना, लालपनता- चाटुकारिता, कामाशा- विषय की इच्छा, भोगाशा- भोग्य पदार्थों की इच्छा, जीविताशा- जीवन की कामना, मरणाशा- मृत्यु की कामना और नन्दिराग- प्राप्त सम्पत्ति में अनुराग।। यह भी विचारणीय है कि हमारे ऋषियों ने धन की आकांक्षा और यश की कामना दोनों को समान बताया है और इनसे दूर रहने का उपदेश दिया है। ऋषिभाषित' के याज्ञवल्क्य अध्ययन में वित्तैषणा और लोकैषणा दोनों को समान बताया गया है। जबतक लोकैषणा है तब तक वित्तैषणा है अतः दोनों को जानकर इनमें संयम का पालन आवश्यक है। ख्याति, प्रसिद्धि की भावना भी लोभ है। बृहदारण्यक उपनिष में ऋषि याज्ञवल्क्य का यह संवाद प्राप्त होता है- 'उस इस आत्मा को ही जानकर ब्राह्मण, पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा से अलग हटकर भिक्षाचर्या से विचरते हैं। जो भी पुत्रैषणा है, वही वित्तषणा है और जो वित्तैषणा है वही लोकैषणा है।' आचार्य गुणभद्र विरचित आत्मानुशासन के अनुसार यदि दानादि पुण्य कार्य यश के उद्देश्य से किया जाता है तो वह निरर्थक है। परन्तु वर्तमान परिवेश में यश की कामना सामाजिक कार्य में प्रवृत्ति का बहुत बड़ा कारक है। अतः दान आदि कृत्य मुख्य हैं। भले ही वे यश की कामना से किये गये हों, पूर्वजों की कीर्ति की रक्षा और उसमें वृद्धि भी श्रावक का कर्तव्य लोभ का सबसे बड़ा दुर्गुण इसकी अतृप्तता है। लोभी व्यक्ति कभी तृप्त नहीं हो सकता है। उत्तराध्ययनसूत्र में लोभ की अतृप्तता का वर्णन करते हुए कहा गया है- रजत और स्वर्ण के कैलाश पर्वत के समान विशाल एवं असंख्य पर्वत भी यदि लोभी के पास हों तो भी लोभी मानव की तृप्ति के लिए वे कुछ भी नहीं हैं क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है। इसमें यह भी वर्णन है कि

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