Book Title: Sramana 2012 01
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 20
________________ भेदविज्ञान द्वारा श्रावक - लोभसंवरण: 13 कवि रहीम 22 ने दान के महत्त्व के सम्बन्ध में कहा है- यदि नाव में पानी बढ़ जाय और घर में धन बढ़ जाय तो पानी और धन दोनों को दोनों हाथ से बाहर निकालना ही बुद्धिमान का कर्त्तव्य हैपानी बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम । दोऊ हाथ उलीचिए, यही सयानो काम ।। इस प्रकार दान करना गृहस्थ के लिए आवश्यक बताया गया है। " डॉ. पुष्पा गर्ग 23 ने अपने लेख 'आध्यात्मिक उन्नति में दान की साधनरूपता' में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में दान के भेदों पर विचार किया है, वे हैं - 1. द्रव्यदान, 2. अन्नदान, 3. मधुर वचनों का दान 4. आश्वासन दान, 5. आजिविका दान, 6. आश्रय दान, 7. जल दान, 8. श्रमदान, 9. विविध दान, 10. विद्या दान, 11. मानदान, 12. रक्त दान, 13. पुण्यदान और जप दान। वास्तव में ये सभी प्रकार के दान मानव जीवन के कर्त्तव्य रूप में आध्यात्मिक उन्नति के साधन तो हैं ही इनका सामाजिक महत्त्व और भी अधिक है। जैन आगमों में भी श्रावक के सामाजिक दायित्व की चर्चा की गई है। स्थानांगसूत्र 24 में धार्मिक कर्त्तव्यों के साथ-साथ सामाजिक कर्त्तव्यों की भी प्ररूपणा की गई है। वहां दस धर्म या कर्त्तव्य, 1. ग्रामधर्म, 2. नगरधर्म, 3. राष्ट्रधर्म, 4. पाखण्डधर्म, 5. कुलधर्म, 6. गणधर्म, 7. संघधर्म, 8. श्रुतधर्म, 9. चारित्रधर्म और 10. अस्तिकायधर्म वर्णित हैं। इनमें से ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म, कुलधर्म, गण धर्म और संघ धर्म पूर्णतया सामाजिक दायित्व हैं। ग्राम का अर्थ व्यक्तियों के कुलों का समूह है। ग्रामधर्म का तात्पर्य है जिस ग्राम में निवास है उस ग्राम की व्यवस्थाओं, मर्यादाओं एवं नियमों के अनुरूप कार्य करना। नगर से तात्पर्य है ग्रामों के मध्य में स्थित एक केन्द्रीय ग्राम, जो उनका व्यावसायिक केन्द्र होता है, नगर कहा जाता है । सामान्यतः ग्रामधर्म और नगरध र्म में विशेष अन्तर नहीं है। राष्ट्र धर्म का तात्पर्य है- राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना अथवा जीवन की विशिष्ट प्रणाली को सजीव बनाये रखना। राष्ट्रीय विधिविधान, नियमों एवं मर्यादाओं का पालन करना ही राष्ट्रधर्म है। कुलधर्म - परिवार अथवा वंश-परम्परा के रीति-रिवाजों एवं मर्यादाओं का पालन करना कुल धर्म है। जैन परम्परा में गृहस्थ एवं मुनि दोनों के लिए कुल धर्म का पालन आवश्यक है । यद्यपि मुनि का कुल उसके पिता के आधार पर नहीं, वरन् गुरु के आधार पर बनता है। गणधर्म - गण का अर्थ समान आचार एवं विचार के व्यक्तियों का समूह है। गण दो माने गये हैं- लौकिक और लोकोत्तर । महावीर के समय में हमें गणराज्यों का उल्लेख मिलता है। मधुकर मुनि 25 ने गणधर्म का अभिप्राय गणतन्त्र

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