Book Title: Shravak Dharm Vidhi Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, Vinaysagar Mahopadhyay, Surendra Bothra
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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श्रावक धर्म विधि प्रकरण
का सेवन करने वाले और साधुता के चोरों को संघ मत कहो । जो ऐसे (दुराचारियों के समूह) को राग या द्वेष के वशीभूत होकर भी संघ कहता है उसे भी छेद- प्रायश्चित्त होता है । हरिभद्र पुन: कहते हैं - जिनाज्ञा का अपलाप करने वाले इन मुनि वेशधारियों के संघ में रहने की अपेक्षा तो गर्भवास और नरकवास कहीं अधिक श्रेयस्कर है। ४४
हरिभद्र की यह शब्दावली इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि धर्म के नाम पर अधर्म का पोषण करने वाले अपने ही सहवर्गियों के प्रति उनके मन में कितना विद्रोह एवं आक्रोश है । वे तत्कालीन जैन संघ को स्पष्ट चेतावनी देते हैं कि ऐसे लोगों को प्रश्रय मत दो, उनका आदर-सत्कार मत करो, अन्यथा धर्म का यथार्थ स्वरूप ही धूमिल हो जाएगा। वे कहते हैं कि यदि आम और नीम की जड़ों का समागम हो जाय तो नीम का कुछ नहीं बिगड़ेगा, किन्तु उसके संसर्ग में आम का अवश्य विनाश हो जाएगा । ४५ वस्तुतः हरिभद्र की क्रान्तदर्शिता यथार्थ ही है, क्योंकि दुराचारियों के सान्निध्य में चारित्रिक पतन की सम्भावना प्रबल होती है। वे स्वयं कहते हैं, जो जिसकी मित्रता करता है, तत्काल वैसा हो जाता है। तिल जिस फूल में डाल दिये जाते हैं उसी की गन्ध के हो जाते हैं । ४६ हरिभद्र इस माध्यम से समाज को उन लोगों से सतर्क रहने का निर्देश देते हैं जो धर्म का नकाब डाले अधर्म में जीते हैं, क्योंकि ऐसे लोग दुराचारियों की · अपेक्षा भी समाज के लिये अधिक खतरनाक हैं। आचार्य ऐसे लोगों पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं - जिस प्रकार कुलवधू का वेश्या के घर जाना निषिद्ध है, उसी प्रकार सुश्रावक के लिये हीनाचारी यति का सान्निध्य निषिद्ध है । दुराचारी अगीतार्थ के वचन सुनने की अपेक्षा तो दृष्टि विष सर्प का सान्निध्य या हलाहल विष का पान कहीं अधिक अच्छा है (क्योंकि ये तो एक जीवन का विनाश करते हैं, जबकि दुराचारी का सान्निध्य तो जन्म-जन्मान्तर का विनाश कर देता है)।४७
फिर भी ऐसा लगता है कि इस क्रान्तदर्शी आचार्य की बात अनसुनी हो रही थी, क्योंकि शिथिलाचारियों के अपने तर्क थे । वे लोगों के सम्मुख कहते थे कि सामग्री (शरीर-सामर्थ्य) का अभाव है। वक्र जड़ों का काल है। दुषमा काल में विधि मार्ग के अनुरूप आचरण कठिन है । यदि कठोर आचार की बात कहेंगे तो कोई मुनि व्रत धारण नहीं करेगा। तीर्थोच्छेद और सिद्धान्त के प्रवर्तन का प्रश्न है, हम क्या करें । ४८ उनके इन तर्कों से प्रभावित हो मूर्ख जन-साधारण कह रहा था कि कुछ भी हो वेश तो तीर्थङ्कर प्रणीत है, अतः वन्दनीय है । हरिभद्र भारी मन से मात्र यही कहते हैं कि मैं अपने सिर की पीड़ा किससे कहूँ । ४९
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