Book Title: Shravak Dharm Vidhi Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, Vinaysagar Mahopadhyay, Surendra Bothra
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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(श्रावक धर्म विधि प्रकरण)
एमाइ बहुविगप्पं, उस्सुत्तं आयरंति सयमेव । अन्नेसि पण्णवेति य, सिच्छाए जे अहाछंदा॥ २७ ॥
२७. इस प्रकार अनेक प्रकार से जो स्वेच्छा से उत्सूत्र आचरण करते हैं, उत्सूत्र (आगम विरुद्ध) प्रतिपादन करते हैं
और अन्य लोगों को भी (उत्सूत्र आचरण के लिए) प्रेरित करते हैं वे यथाच्छन्द हैं।
27. Further, those who, of their own volition, follow an erroneous conduct, propagate it, and inspire others to accept it are yathachhand. एत्तो चिय तेसिमुवस्स यम्मि तु दिवससमागओ साहू । तेसिं धम्मकहाए, कुणइ विघायं सइ बलम्मि ॥ २८ ॥
२८. अतएव सामर्थ्यवान मुनि को दिन में यथाच्छन्दाचारियों के उपाश्रय में जाकर सामर्थ्य के साथ उन स्वेच्छाचारियों की उत्सूत्र प्ररूपणा रूप धर्म कथा का विरोध करना चाहिए।
28. Therefore, an able ascetic should go to their (the wayward) place of stay during the day time and oppose their erroneous propagation or religious discourse. इहरा ठएइ कण्णे, तस्सवणा मिच्छमेइ साहू वि। अबलो किमु जो सडो, जीवाजीवाइअणभिण्णो ॥ २९ ॥
२९. अन्यथा अर्थात् यथाच्छन्दकों की उत्सूत्रमयी धर्म कथा का प्रतिघात करने में असमर्थ होने पर दोनों कानों को बन्द कर लें। क्योंकि सामान्य साधु भी उनकी देशना को सुनकर जब मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है तो फिर जीवाजीवादि तत्त्वों से अनभिज्ञ एवं अबल अर्थात् आगम ज्ञान से रहित श्रद्धावान श्रावक के लिए तो प्रश्न ही कहाँ? अर्थात् वह तो निश्चय से मिथ्यात्व को प्राप्त कर लेता है।
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