Book Title: Shravak Dharm Vidhi Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, Vinaysagar Mahopadhyay, Surendra Bothra
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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(श्रावक धर्म विधि प्रकरण)
एत्य य पासत्थाईहिं संगयं चरणनासयं पायं । सम्मतहरमहाईवेहि 3 तल्लक्खणं चेयं ॥ २२ ॥
२२. इस प्रकार यहाँ पार्श्वस्थ आदि की संगति (परिचय आदि) सम्यक्त्व का हरण करने वाली, चारित्र का नाश करने वाली और पतन रूप है। यथाच्छन्दों का लक्षण इस प्रकार है।
22. Know that the company (acquaintance, etc.) of these lax, etc. individuals is damaging to the conduct, and a sign of downfall, and ruinous to Samyaktva (righteousness). The attributes of such waywards are as follows.
उस्सुत्तमायरंतो, उस्सुसं. चेव पण्णवेमाणो। एसो उ अहाउंवो, इच्छाध्वो ति एगत्था॥ २३ ॥
२३. उत्सूत्र (शास्त्र विरूद्व) आचरण करने वाला और उत्सूत्र प्ररूपणा करने वाला यथाच्छन्द (स्वेच्छाचारी) कहलाता है। यथाच्छन्द और इच्छाच्छन्द एकार्थक हैं।
23. One whose conduct is against the scriptures and who also propagates against the scriptures is called yathachhand or wayward. Yathachhand and ichhachhand are synonyms.
उस्सुत्तमणुवइदं सच्छंदविगप्पियं अणणुवाई। परतत्तिपवित्ते तिंतिणो य इणमो अहाछंदो॥ २४ ॥
२४. यथाच्छन्द उत्सूत्र अर्थात् आगम विरुद्ध आचरण करने वाला अव्याख्यात है। स्वच्छन्द कल्पित चिंतन भी आगम की व्याख्या से विरुद्ध होता है। वह अन्य लोगों को संतुष्ट करने में लगा रहता है और बडबड (बकवास) करने वाला होता है। यह यथाच्छन्द का स्वरूप है।