Book Title: Shravak Dharm Vidhi Prakaran
Author(s): Haribhadrasuri, Vinaysagar Mahopadhyay, Surendra Bothra
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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(श्रावक धर्म विधि प्रकरण )
जह राया सिट्ठजणो, कलजीवी पगइ अंतवासी य। . सव्वे मन्नतेवं, वसाम अन्नोनसंगहिया ॥ ३९ ॥
३९. जैसे राजा, शिष्टजन अर्थात् अमात्य श्रेष्ठी आदि, कलाजीवी अर्थात् शिल्पी आदिऔर अन्तेवासी अर्थात् सेवकजन
आदि सब लोग आपस में एक-दूसरे का सहयोग करते हुए नगर में एक साथ रहते हैं।
39. A king, prominent people like ministers, and merchants, artisans, servants, and beggars, etc. all live together in a town co-operating each other (not in misdeeds). करदाणेण य सव्वे, अन्नोनुवगारिणो फुडं चेय। राया जाणवयाई, सिप्पकलाजीवणेणं च ॥ ४० ॥
४०. राजा कर लेकर, और जनपद (नगर निवासी)कर देकर एवं शिल्पी अपनी कला आदि से एक-दूसरे के उपकारी होकर रहते हैं, यह स्पष्ट ही है।
40. It is clear that the rulers and the ruled all live together interacting with each other in mutually connected activities like giving and collecting of taxes and supporting various arts, crafts and trades (this does not include any misdeeds).
इय आरंभेऽणुमई,. किरियासामग्गिसंगयं जम्हा । मिच्छं पुण भावकयं, सो पुण भावो न परजणिओ ॥ ४१ ॥
४१. जिन कारणों से आरंभ में अनुमति / स्वीकृति मानी जाती है, वे कारण हैं-आरंभ आदि क्रिया प्रवृत्ति में पूरी तरह से सम्बद्ध होना। यदि व्यक्ति उसमें पूरी तरह से सम्मिलित नहीं है तो उसका अनुमोदन नहीं है। पुन: मिथ्यात्व की उत्पत्ति भाव अर्थात् अघ्यवसायों से होती है और अध्यवसाय दूसरों से जनित नहीं होते हैं, वे व्यक्ति के अपने होते हैं।