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( १८ )
संतकम्मपंजिया निबन्धन, प्रक्रम, उपक्रम और उदय इन पूर्वोक्त चार अनुयोगद्वारोंके ऊपर एक पंजिका भी उपलब्ध है जो इसी पुस्तकके 'परिशिष्ट' में दी गयी है। यह पंजिका किसके द्वारा रची गयी है, इसका कुछ संकेत यहाँ प्राप्त नहीं है। उसकी उत्थानिकामें यह बतलाया गया है कि ' महाकर्मप्रकृति प्राभूत' के जो कृति-वेदनादि २४ अनुयोगद्वार हैं उनमेंसे कृति और वेदना गामक २ अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा वेदनाखण्ड ( पु० ९-१२ ) में की गयी है। स्पर्श, कर्म, प्रकृति ( पु० १३ ) और बन्धन अनुयोगद्वारके अन्तर्गत बन्ध एवं बन्धनीय ( बन्धन अनुयोग द्वार चार प्रकारका है- बन्ध, बन्धनीय, बन्धक और बन्धविधान ) अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा वर्गणाखण्डमें की गयी है। बन्धन अनुयोगद्वारके अन्तर्गत बन्धविधान नामक अवान्तर अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा महाबन्धमें विस्तारपूर्वक की गयी है। तथा उक्त बन्धन अनुयोगद्वारके अवान्तर अनुयोगद्वारभूत बन्धक अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा क्षुद्रकबन्ध (पृ० ७) में विस्तार से की गयी है। शेष १८ अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा सत्कर्म में की गयी है। तथापि उसके अतिशय गम्भीर होनेसे यहाँ अर्थविषमपदोंके अर्थकी प्ररूपणा पंजिका स्वरूपसे की जाती है।
इससे यह निश्चित होता है कि प्रस्तुत मूलभूत षट्खंडागममें कृति-वेदनादि पूर्वोक्त २४ अनुयोगद्वारोंमेंसे प्रथम ६ अनुयोगद्वारोंकी ही प्ररूपणा की गयी है। शेष निबन्धन आदि १८ अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा श्री वीरसेन स्वामीने स्वयं ही की है, जैसे कि उन्होंने उसके प्रारम्भमें इस वाक्यके द्वारा सूचित भी कर दिया है--
___ भूदबलिभडारएण जेणेदं देसामासियभावेग लिहिदं तेणेदेण सुत्तेण सूचिदसेसअट्ठारसअणुयोगद्दाराणं किंचि संखेवेण परूवणं कस्सामो । तं जहा--
उक्त 'संतकम्मपंजिया' की उत्थानिकामें की गयी सूचनाके अनुसार तो वह शेष सभी १८ अनुयोगद्वारोंके ऊपर लिखी जानी चाहिये थी। परन्तु उपलब्ध वह उदयानुयोगद्वार तक ही है । इसकी जो हस्तलिखित प्रति हमारे सामने रही है वह श्री पं० लोकनाथ जी शास्त्रीके अन्यतम शिष्य श्री देवकुमार जी के द्वारा मूडबिद्रीस्थ श्री वीरवाणीविलास जैन सिद्धान्त भवनकी प्रतिपरसे लिखी गयी है। वह प्राय: अशुद्ध बहुत है। इसमें लेखकने पूर्णविराम, अर्धविराम और प्रश्नसूचक आदि चिन्होंका भी उपयोग किया है जो यत्र तत्र भ्रान्तिजनक भी हो गया है।
पंजिकामें जहां भी अल्पबहुत्वका प्रकरण प्राप्त हुआ है उसीके ऊपर प्रायः विशेष लिखा गया है, अन्य विषयोंका स्पष्टीकरण प्रायः कहीं भी विशेषरूपसे नहीं किया गया है। यहां पंजिकाकारने जो संख्याओंका उपयोग अल्पबहुत्वके स्पष्टीकरणार्थ किया है वह किस आधारसे किया है, यह समझमें नहीं आ सका है। इसमें प्रायः सर्वत्र अस्पष्ट स्वरूपसे एक विशेष चिन्ह आया है जो प्रायः संख्यातका प्रतीक दिखता है । उसके स्थान में हमने अंग्रेजीके (2) के अंक का उपयोग किया है।
8 महाबन्धके ५ भाग ‘भारतीय ज्ञानपीठ' द्वारा प्रकाशित किये जा चुके हैं। शेष भागोंके भी शीघ्र प्रकाशित हो जानेकी सम्भावना है।
* महाकम्मपयडिपाहुडस्स कदि-वेदणाओ (इ) चउवीसमणयोगद्दारेसु तत्थ कदि-वेदणा ति जाणि अणुयोगदाराणि वेदणाखंडम्मि, पुणो प ( पस्स-कम्म-पयडि-बंधग त्ति ) चतारिअगुओगद्दारेसु तत्य बंध-बंधणिज्जणामाणु योगेहि सह बग्गणाखंडम्मि, पुणो बंधविधागणामाणुयोगद्दारो महाबंधम्मि, पुणी बंधगाणुयोगो खुद्दाबंधम्मि च सप्पवंचेण परूविदाणि । पुणो तेहिंतो सेसद्वारसाणुयोगद्दाराणि संतकम्मे सव्वाणि परूविदाणि । तो वि तस्साइगंभीरत्तादो अत्थविसमपदाणमत्थे थोरुच्चयेण पंजियसरूवेण भण्णिस्सामो। परिशिष्ट पृष्ठ १
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