Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 10
________________ - विषय परिचय स्पर्श अनुयोगद्वारसे वर्गणाखण्ड प्रारम्भ होता है। इसमें स्पर्श, कर्म और प्रकृति इन तीन अधिकारों के साथ बन्धन अनुयोगद्वारके बन्ध और बन्धनीय इन दो अधिकारोंका विस्तार के साथ विवेचन किया गया है। फिर भी इसमें बन्धनीयका आलम्बन लेकर वर्गणाओंका सविस्तर वर्णन किया है, इसलिए इसे वर्गणाखण्ड इस नामसे सम्बोधित करते हैं । १ स्पर्श अनुयोगद्वार Jain Education International - स्पर्श छूने को कहते हैं । वह नामस्पर्श और स्थापनास्पर्श आदिके भेदसे अनेक प्रकारका है, इसलिए प्रकृत में कौनसा स्पर्श गृहीत है यह बतलाने के लिए यहां स्पर्श अनुयोगद्वारका आलम्बन लेकर स्पर्शनिक्षेप, स्पर्शनयविभाषणता, स्पर्शनामविधान स्पर्शद्रव्यविधान आदि १६ अधिकारोंके द्वारा स्पर्शका विचार किया है । १ स्पर्शननिक्षेप स्पर्शनिक्षेपके नामस्पर्श, स्थापनास्पर्श, द्रव्यस्पर्श, एकक्षेत्रस्पर्श, अनन्तरक्षेत्रस्पर्श, देशस्पर्श त्वक्स्पर्श, सर्वस्पर्श स्पर्शस्पर्श, कर्मस्पर्श, बन्धस्पर्श, भव्यस्पर्श और भावस्पर्श ये तेरह भेद है । २ स्पर्शनयविभाषणता अभी जो स्पर्शनिक्षेपके तेरह भेद बतलाए हैं उनमें से कौन स्पर्श किस नयका विषय है, यह बतलाने के लिए यह अधिकार आया है। नयके मुख्य भेद पांच हैं- नेगमनय, व्यवहारनय, संग्रहनय, ऋजुसूत्रनय और शब्दनय । इनमेंसे नैगमनय नामस्पर्श आदि सब स्पर्शोका स्वीकार करता है । व्यवहार और संग्रहनय बन्धस्पर्श और भव्यस्पर्शको स्वीकार नहीं करते, शेष ग्यारहको स्वीकार करते हैं । ये दोनों नय बन्धस्पर्श और भव्यस्पर्शको क्यों स्वीकार नहीं करते, इसके कारणका निर्देश करते हुए वीरसेन स्वामी कहते हैं कि इन नयोंकी दृष्टि में एक तो बन्धस्पर्श कर्मस्पर्शमें अन्तर्भाव हो जाता है, इसलिये इसे अलग से स्वीकार नहीं करते । दूसरे बन्धस्पर्श बनता ही नहीं है, क्योंकि बन्ध ओर स्पर्श इनमें कोई भेद ही नहीं है, इसलिए भी इसे स्वीकार नहीं करते । तथा भव्यस्पर्श वर्तमान समय में उपलब्ध नहीं होता, इसलिए बन्धस्पर्श के समान भव्यस्पर्श भी इनका विषय नहीं है । ऋजुसूत्रनय स्थापनास्पर्श एकक्षेत्रस्पर्श, अनन्तरस्पर्श, बन्धस्पर्श और भव्यस्पर्श इन पांच को स्वीकार नहीं करता; शेष नो स्पर्शोको स्वीकार करता है । ऋजुसूत्रनय एकक्षेत्रस्पर्शको क्यों विषय नहीं करता, इसके कारणका निर्देश करते हुए वीरसेन स्वामी कहते हैं कि इस नयकी दृष्टिमें एकक्षेत्र नहीं बनता क्योंकि एकक्षेत्र पदका एक जो क्षेत्र वह एकक्षेत्र' ऐसा अर्थ करनेपर आकाशकी दृष्टिसे एक आकाशप्रदेश उपलब्ध होता है । परन्तु वह ऋजुसूत्र की दृष्टि में एकक्षेत्रस्पर्श नहीं बन सकता, क्योंकि स्पर्श दोका होता है, और नय दोको स्वीकार नहीं करता । इसी प्रकार इस नयकी दृष्टिसे अन्तरक्षेत्र स्पर्श भी नहीं बनता, क्योंकि यह नय आधार - आधेयभावको स्वीकार नहीं - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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