Book Title: Shabdaratna Pradip Author(s): Hariprasad Shastri Publisher: Rajasthan Purattvanveshan Mandir View full book textPage 7
________________ भोलाभाई जेसिंगभाई अध्ययन संशोधन विद्याभवन, गुजरात विद्यासभा, अहमदाबाद) ने, अपने इंग्रेजी उपोद्घात( इन्ट्रोडक्शन )में यथेष्ट रूपमें किया है जिससे जिज्ञासु पाठकोंको ग्रन्थगत विषयका विशिष्ट स्वरूप ज्ञात हो सकेगा। ग्रन्थके स्थूल अवलोकनसे सामान्य जनको भी ज्ञात हो जायगा कि प्रस्तुत ग्रन्थ संस्कृत भाषाका एक संक्षिप्त शब्दकोष स्वरूप है। संस्कृत भाषाका शब्दभण्डार अगाध है । इस भण्डारका दिग्दर्शन एवं परिज्ञान करानेके लिये प्राचीन कालसे अनेक विद्वान्, अनेक प्रकारके शब्दकोषोंकी रचना करते आये हैं और अब भी यह कार्य सतत ही चल रहा है। प्राचीन कालमें, अमर, विश्व, वैजयन्ती, मेदिनी, धनंजय, अभिधानचिन्तामणि आदि अनेक शब्दकोष बने और आधुनिक कालमें शब्दकल्पद्रुम, वाचस्पत्यबृहदभिधान, शब्दस्तोममहानिधि, शब्दचिन्तामणि आदि अनेक बृहदाकार शब्दकोष बने हैं। तदुपरान्त विल्सन, मोनियर विलियम्स, मेकडोनाल्ड आदि पश्चिमीय विद्वानोंने भी संस्कृत-इंग्रेजी के अनेक शब्दकोष बनाये हैं। इन सबमें सबसे बड़ा और बहुत ही महत्त्वका शब्दकोष जर्मन विद्वान् रॉथ और बॉलिंगने संस्कृत-जर्मन कोष बनाया जिसकी ७ बड़ी बड़ी जिल्दें हैं और जिसके बनाने में उन दोनों विद्वानोंने अपने जीवनके महत्त्वके कोई ५० वर्षसे भी अधिक वर्ष बिताये थे । रूसके प्राचीन राजनगर पीटर्सबर्ग( अब लेनिनग्राड )की रॉयल अकादेमीने उस कोषको प्रकाशित किया था जिसके कारण वह पीटर्सबर्ग-संस्कृत शब्दकोष (जर्मन नाम 'संस्कृत वॉर्टरबुख' )के नामसे प्रसिद्ध है। अब पूनास्थित डेक्कन रिसर्च इन्स्टी. टयट नामकी प्रख्यात शोध-संस्थाकी ओरसे इसी प्रकारके एक बृहत्पारमाण एवं परिपूर्ण शब्दकोषके निर्माणको योजना की गई है और इसका कार्य चालू है। इस संस्थाकी ओरसे नूतन महाकोषकी रचनाके साथ साथ, प्राचीन कालमें बने हए भिन्न भिन्न कोषोंका प्रकाशन कार्य भी चल रहा है और अनेकार्थतिलक, अमरमण्डन, शारदीया नाममाला, शिवकोष, नानार्थरत्नमाला आदि ऐसे अनेक छोटे-बड़े कोषग्रन्थ छपवाकर प्रसिद्ध किये गये हैं। ऐसे ही लक्ष्यकी पूर्तिरूप प्रस्तुत शब्दरत्नप्रदीप भी प्रकाशित किया जाता है जो संस्कृतके समृद्ध साहित्यभण्डारको समग्ररूपमें प्रकाशित देखनेवाले संस्कृतिप्रिय सजनोंको अवश्य समादरणीय होगा। प्रस्तुत कोषके कर्ताका कोई नाम नहीं मिलता; और नहीं ग्रन्थके आरम्भमें या अन्तमें कोई ऐसा संकेतविशेष मिलता है जिससे ग्रन्थकारके संप्रदाय आदिके बारेमें भी कुछ कल्पना की जा सके। इसलिये ग्रन्थके संपादक विद्वान्ने इस बारेमें जो उल्लेख किया है वह संगत ही है। पर, ग्रन्थके अन्तर्गत एक दो उल्लेख हमें ऐसे दिखाई देते हैं जिससे संभव है कि ग्रन्थका बनानेवाला कोई जैन विद्वान् हो। विद्वानोंकी जिज्ञासाके लिये हम यहां एक विशेष प्रकारके उल्लेखका निर्देश करते हैं-प्रथम मुक्तकके ५६ वें श्लोकमें 'जिन' शब्दके अर्थ दिये हैं।Page Navigation
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