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राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रधान सम्पादक - पुरातत्त्वाचार्य जिनविजय मुनि [ सम्मान्य संचालक, राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर, जयपुर ]
- ग्रन्थाङ्क १९
वि० सं० २०१३ ]
शब्दरत्नप्रदीपः
—
प्रकाशक
-
राजस्थान-राज्य-संस्थापित
राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर
( Rajasthan Oriental Research Institute; Jaipur. )
जयपुर (राजस्थान )
प्रति ७५०
[ मूल्य रु०
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राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रधान सम्पादक - पुरातत्त्वाचार्य जिनविजय मुनि [ सम्मान्य संचालक, राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर, जयपुर ]
- ग्रन्थाङ्क १९ -
शब्दरत्नप्रदीपः
प्रकाशक
राजस्थानं - राज्य संस्थापित
राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर
(Rajasthan Oriental Research Institute; Jaipur. )
जयपुर (राजस्थान )
वि० सं० २०१३ ]
प्रति ७५०
B
[ मूल्य रु० २) ६०
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RAJASTHANA PURATANA GRANTHAMĀLĀ
Published by the Government of Rajasthan A Series devoted to the Publication of Sanskrit, Prakrit, Apabhraíía, Old Rajasthani-Gujarati and Old Hindi works pertaining to
India in general and Rajasthan in particular.
General Editor Acharya JINA VIJAYA MUNI, Puratattvacharya,
Honorary Director, Rajasthan Oriental Research Institute, Honorary Member of the German Oriental Society; Bhandarkar Oriental
Research Institute, Poona; and Gujarat Sahitya Sabha, Ahmedabad,
No. 19 ŚABDARATNAPRADĪPA
Edited by Prof. Dr. HARIPRASAD SHASTRI
M. A., Ph. D. (Bombay), ( Asstt. Director, B. J. Institute of Learning and Research,
2 : Gujarat Vidya Sabha, Ahmedabad. )
RAJASTHAN ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE
JAIPUR
1956
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शब्दरत्नप्रदीपः
सम्पादक प्राध्यापक डॉ. हरिप्रसाद शास्त्री, एम्. प., पीएच्. डी. (बंबई), ( उपाध्यक्ष, भो. जे. अध्ययन-संशोधन विद्याभवन,
गुजरात विधासमा, अहमदाबाद )
- प्रकाशक :
राजस्थान-राज्याज्ञानुसार संचालक-राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर
(. Rajasthan Oriental Research Institute; Jaipur. )
जयपुर (राजस्थान)
विक्रमाव्द २०१३]
प्रथमावृत्ति ★ मूल्य रू०
[खिस्ताब्द १९५६
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प्रकाशकसंचालक - राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर, जयपुर, के आदेशानुसार - गोपालनारायण बहुरा ।
मुद्रकजयन्ति दलाल, वसंत प्रिण्टिंग प्रेस, घोकांटा रोड, अहमदाबाद .
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प्रधान संपादकीय वक्तव्य
सन् १९४२ के दिसंबर से ४३ के अप्रेल तक के ५ महिने जैसलमेरके सुप्रसिद्ध प्राचीन जैन ज्ञानभंडारोंका विशेषरूपसे अवलोकन करनेका हमें सुअवसर मिला । हमारे साथ गुजरात विद्यासभा के प्राचीन साहित्य भण्डारके भाण्डागारिक (क्यूरेटर ) और गुजराती साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान् एवं विवेचकलेखक, अध्यापकवर श्रीकेशवरामजी का शास्त्री तथा प्राकृतसाहित्य के मर्मज्ञ पण्डित श्रीयुत अमृतलाल मोहनलाल भोजक, एवं प्राचीन ताडपत्रीय ग्रन्थलिपिके प्रमाणभूत प्रतिलिपिकर्ता श्रीयुत चिमनलाल भोजक, रसिकलाल भोजक पं. शान्तिलाल शेठ तथा नागोरनिवासी मूलचंद व्यास, जयगोपाल व्यास, मेघराज व्यास आदि विद्वान् और सुयोग्य लेखकगणका अच्छा समूह था । उन पांच महिनोंमें हमने उक्त ग्रन्थभण्डारोमेंसे संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, प्राचीन राजस्थानी, गुजराती, हिन्दी, व्रज आदि भाषाओमें रचे हुए छोटे-बडे सैंकडों ही अप्रसिद्ध - अज्ञात - अप्राप्य ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियां करवाई । इनमें से कई ग्रन्थोंका तो हमने अपनी 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' द्वारा प्रकाशन करना निश्चित किया, जिसके फलस्वरूप इतः पूर्व कई ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं और कई अभी प्रेसों में छप रहे हैं ।
राजस्थान पुरातन ग्रन्थमालाके १९ वें पुष्पके रूपमें, ' शब्दरत्नप्रदीप' नामक प्रस्तुत ग्रन्थ विद्वानोंके करकमलोमें उपस्थित है यह भी उसी जैसलमेरके 'ज्ञानभण्डारमेंसे प्राप्त हुआ था।
उस ज्ञानभण्डारमें सुरक्षित दो-तीन प्राचीन प्रतियोंपरसे इस ग्रन्थकी प्रतिलिपिका काम विद्वद्वर्य्य श्री के. का. शास्त्रीने किया था। इसकी उक्त प्रतिलिपि गुजरात विद्यासभा के संग्रह में रखी गई है । हमारा लक्ष्य तभीसे इस ग्रन्थको प्रकाशमें लानेका रहा था ।
सन् १९५० में राजस्थान सरकार द्वारा, हमारे तत्त्वावधान में, राजस्थान पुरातत्त्व मन्दिरकी स्थापना होने पर, हमने इस संस्था द्वारा राजस्थान की साहित्यिक समृद्धिको प्रकाशमें लानेके हेतु 'राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला' के प्रकाशनका विस्तृत आयोजन किया । जैसलमेर एवं राजस्थान के अन्यान्य अनेक स्थानोंमें ऐसे सैंकडों ही ग्रन्थ छिपे पड़े हैं जो अभी प्रायः अज्ञात एवं अप्रकाशित हैं । यथाशक्य और यथासाधन इन ग्रन्थोंको प्रकाशमें लानेका हमारा सर्व प्रधान उद्देश्य रहा है और तदनुसार प्रस्तुत ग्रन्थमाला में अनेकानेक ग्रन्थ प्रकट करनेका प्रयत्न किया जा रहा है । कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रस्तुत ग्रन्थ भी उसी प्रयत्नका एक फल है ।
इस ग्रन्थके विषय में
आवश्यक परिचय आदि ज्ञातव्य बातों का उल्लेख, संपादनकर्ता डॉ. हरिप्रसाद शास्त्री, एम्. ए., पीएच. डी. (आसिस्टेंट डायरेक्टर,
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भोलाभाई जेसिंगभाई अध्ययन संशोधन विद्याभवन, गुजरात विद्यासभा, अहमदाबाद) ने, अपने इंग्रेजी उपोद्घात( इन्ट्रोडक्शन )में यथेष्ट रूपमें किया है जिससे जिज्ञासु पाठकोंको ग्रन्थगत विषयका विशिष्ट स्वरूप ज्ञात हो सकेगा।
ग्रन्थके स्थूल अवलोकनसे सामान्य जनको भी ज्ञात हो जायगा कि प्रस्तुत ग्रन्थ संस्कृत भाषाका एक संक्षिप्त शब्दकोष स्वरूप है। संस्कृत भाषाका शब्दभण्डार अगाध है । इस भण्डारका दिग्दर्शन एवं परिज्ञान करानेके लिये प्राचीन कालसे अनेक विद्वान्, अनेक प्रकारके शब्दकोषोंकी रचना करते आये हैं और अब भी यह कार्य सतत ही चल रहा है। प्राचीन कालमें, अमर, विश्व, वैजयन्ती, मेदिनी, धनंजय, अभिधानचिन्तामणि आदि अनेक शब्दकोष बने और आधुनिक कालमें शब्दकल्पद्रुम, वाचस्पत्यबृहदभिधान, शब्दस्तोममहानिधि, शब्दचिन्तामणि आदि अनेक बृहदाकार शब्दकोष बने हैं। तदुपरान्त विल्सन, मोनियर विलियम्स, मेकडोनाल्ड आदि पश्चिमीय विद्वानोंने भी संस्कृत-इंग्रेजी के अनेक शब्दकोष बनाये हैं। इन सबमें सबसे बड़ा और बहुत ही महत्त्वका शब्दकोष जर्मन विद्वान् रॉथ और बॉलिंगने संस्कृत-जर्मन कोष बनाया जिसकी ७ बड़ी बड़ी जिल्दें हैं और जिसके बनाने में उन दोनों विद्वानोंने अपने जीवनके महत्त्वके कोई ५० वर्षसे भी अधिक वर्ष बिताये थे । रूसके प्राचीन राजनगर पीटर्सबर्ग( अब लेनिनग्राड )की रॉयल अकादेमीने उस कोषको प्रकाशित किया था जिसके कारण वह पीटर्सबर्ग-संस्कृत शब्दकोष (जर्मन नाम 'संस्कृत वॉर्टरबुख' )के नामसे प्रसिद्ध है। अब पूनास्थित डेक्कन रिसर्च इन्स्टी. टयट नामकी प्रख्यात शोध-संस्थाकी ओरसे इसी प्रकारके एक बृहत्पारमाण एवं परिपूर्ण शब्दकोषके निर्माणको योजना की गई है और इसका कार्य चालू है। इस संस्थाकी ओरसे नूतन महाकोषकी रचनाके साथ साथ, प्राचीन कालमें बने हए भिन्न भिन्न कोषोंका प्रकाशन कार्य भी चल रहा है और अनेकार्थतिलक, अमरमण्डन, शारदीया नाममाला, शिवकोष, नानार्थरत्नमाला आदि ऐसे अनेक छोटे-बड़े कोषग्रन्थ छपवाकर प्रसिद्ध किये गये हैं।
ऐसे ही लक्ष्यकी पूर्तिरूप प्रस्तुत शब्दरत्नप्रदीप भी प्रकाशित किया जाता है जो संस्कृतके समृद्ध साहित्यभण्डारको समग्ररूपमें प्रकाशित देखनेवाले संस्कृतिप्रिय सजनोंको अवश्य समादरणीय होगा।
प्रस्तुत कोषके कर्ताका कोई नाम नहीं मिलता; और नहीं ग्रन्थके आरम्भमें या अन्तमें कोई ऐसा संकेतविशेष मिलता है जिससे ग्रन्थकारके संप्रदाय आदिके बारेमें भी कुछ कल्पना की जा सके। इसलिये ग्रन्थके संपादक विद्वान्ने इस बारेमें जो उल्लेख किया है वह संगत ही है। पर, ग्रन्थके अन्तर्गत एक दो उल्लेख हमें ऐसे दिखाई देते हैं जिससे संभव है कि ग्रन्थका बनानेवाला कोई जैन विद्वान् हो। विद्वानोंकी जिज्ञासाके लिये हम यहां एक विशेष प्रकारके उल्लेखका निर्देश करते हैं-प्रथम मुक्तकके ५६ वें श्लोकमें 'जिन' शब्दके अर्थ दिये हैं।
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(१) जिन = वीतराग (जनोंके उपास्य देव), (२) जिन = विष्णु, (३) जिन = कन्दप,
और (४) जिन = सामान्यकेवली । इनमेंसे प्रथमके दो अर्थ तो कोषोमें प्रसिद्ध हैं पर तीसरा और चौथा अर्थ जो दिया है वह प्रायः अन्य कोषोंमें नहीं देखने में आता। इसमें भी खास करके 'जिन'का चौथा अर्थ जो ‘सामान्यकेवली' ऐसा बताया गया है वह विशेष लक्ष्य देने योग्य है। जैन शास्त्रोंमें केवलज्ञान-प्राप्त आत्माको केवली कहते हैं। इनमें जो केवली तीर्थकर पदके धारक होते हैं वे तीर्थंकर कहलाते हैं और जो केवली तीर्थकर पदसे रहित होते हैं वे 'सामान्य केवली' कहलाते हैं पर दोनों प्रकारके केवली 'जिन' अवश्य कहलाते हैं। यह 'सामान्य केवली' वाला शब्दप्रयोग जैनशास्त्रोंके सिवा अन्यत्र कहीं देखने में नहीं आया है। यह केवल जैनशास्त्रका पारिभाषिक शब्द है। अतः कल्पना की जा सकती है कि इस कोषके कर्ताका जैन होना विशेष सम्भव है।
ऐसा ही एक दूसरा उल्लेख भी हमें ध्यान देने लायक ज्ञात हुआ है। प्रथम मुक्तकके ७१ वें श्लोकमें 'जयन्ती' शब्दके चार अर्थ दिये हैं, जिनमें १) नगरीका वाचक है, (२) औषधीका वाचक है, (३) इन्द्रपुत्रीका वाचक है, और (४) 'चेटककी अनुजा'का वाचक है। यह उल्लेख खास करके जैन-कथासाहित्यसे ही संबन्ध रखता है। जैन कथासाहित्यके प्रामाणिक आधारोंसे ज्ञात है कि चेटकराज विदेहकी वैशालीका गणाधिनायक था और जयन्ती श्रमण तीर्थकर भगवान् महावीरकी एक उपासिका थी। इस ग्रन्थमें जयन्तीको 'चेटककी अनुजा' कही है। किंतु जैन कथा-साहित्यसे ज्ञात होता है कि वह चेटककी पुत्री मृगावतीकी ननन्द थी। इस बारेमें यह कहा नहीं जा सकता कि ग्रन्थकारके पास कोई दूसरी परंपरा थी अथवा उसकी गलती थी। जैन आगमोंमें और कथाग्रन्थों में इस जयन्तीका विशेषरूपसे उल्लेख मिलता है । अन्य किसी साहित्यमें इसका कोई निर्देश नहीं है। इससे उस कल्पनाको समर्थन मिलता है कि इस कोषका कर्ता कोई जैन विद्वान् होगा ।
प्रारम्भमें जो शिवका निर्देश है वह तो मंगलवाचक होनेसे जैनोंके लिये भी समान रूपसे स्मरणीय कहा जा सकता है।
ग्रन्थका मुद्रण करते समय मूल प्राचीन प्रतियां सम्मुख उपस्थित न होनेसे कुछ पाठ शंकित और सन्दिग्ध रह गये हैं। अन्य किसी जगहसे इसके कोई प्रत्यन्तर प्राप्त नहीं हुए इसलिये उन शंकित स्थलोंका परिशोधन नहीं हो सका। अनेकान्तविहार,
मुनि जिनविजय अहमदाबाद.
सम्मान्य संचालक, भाद्रपद १५. वि. सं. २०१३
राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर (२५-९-५६)
ज य पुर
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शुद्धिपत्रक
अशुद्ध कान्तो ज्याति कल्पः कल्पो
कल्पं
ज्ञेया A. B. ज्ञेयः (? द्धे)
शुद्ध कान्तौ ज्योति कल्यः कल्यो
कल्यं
झेयः
युक्तके मुक्तकः१२
C. ज्ञेया (१ धौ)
मुक्तके १'मुक्तकः१२ कालेऽनागते मुक्तक कल्य कल्य
काले ह्यनागते
मण्डल
कल्प
खजूर
खजूर
जयन्ती १ ७१
मुक्तक
३६-३९
मण्डल
१०
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प्रधान संपादकीय वक्तव्य
शुद्धिपत्रक
Contents
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CONTENTS
Preface of the General Editor
Introduction
...
...
...
प्रथमो मुक्तकः
द्वितीयो मुक्तकः
तृतीयो मुक्तकः
चतुर्थो मुक्तकः
पञ्चमो मुक्तकः
Appendix I Index of Homonyms Appendix II: Index of Technical Terms Appendix III: Index of Indeclinables
...
...
...
...
⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀
এ V র ল
११
२०
२४
३१
३५
-४०
४३
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PREFACE OF THE GENERAL EDITOR
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...
: I got an opportunity, by a piece of good luck, to visit Jesalmere and inspect its famous Jaina Jñāna Bhandāras for a period of five months, from December 1942 to April 1943. I had with me a company of good scholars and copyists viz. Pandit Keshavaram Shastri, Curator of the Mss. Library of Gujarat. Vidya Sabha, Ahmedabad, and a scholar of repute, Pandit Amritlal Mohanlal Bhojak, a fine and sound scholar of Prakrit,
thentic copyists of the script of ancient Palm-leaf manuscripts-Shri Chimanlal Bhojak, Shri Rasiklal Bhojak, Pandit Shantilal Sheth, and. Shri Mulchand Vyas, Shri Jayagopal Vyas and Shri Meghraja Vyas of Nagor and others. pe In the course of these five months I got copied from those Bhaņdāras hundreds of rare unpublished and unknown small and big works in Sanskrit, Prakit, Apabhramsa, old. Rajasthani, Gujarati, Hindi and Vraja languages...existing in manuscript form; I decided to publish some of these in the Singhi Jain Granthamālā edited by me. As a result of this some works are already published and some are in the press."
Sabdaratnapradipa which is being presented to the learned world as the nineteenth number of Rajasthāna Purātana Granthamālă was discovered from the Jñānabhandāra of Jesalmere. A copy of this work was prepared by Pandit K. K. Shastri from two-three well preserved Mss. of the Jñāna Bhaņdāra. This copy is in possession of the Gujarat Vidya Sabha, Ahmedabad. I had at the time thought of publishing this work.
In 1950 Rajasthāna Purătattya Mandira was established by the Rajasthan Government under my Directorship. In order to bring to light the wealth of literature preserved in Rajashthan, I organised on a large scale the publication of Rājasthāna Purātana Granthamālā. The chief aim of this series is to publish as many works as possible out of hundreds of works lying hidden in Jesalmere and other places in Rājasthāna. Hence the publication of a number of these works in the series, of which the present work is one.
Prof. Dr. Hariprasad Shastri M.A., Ph.D., Assistant Director, B. J. Institute of Learning and Research, Gujarat Vidya Sabha, Ahmedabad, the editor of the work has in his introduction treated all relevant topics
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regarding the work. The reader is referred to it for information, regarding these topics. .
A cursory glance at the work will show that it is a kind of lexicon in Sanskrit. It is well known that from ancient times many scholars of Sanskrit learning have been preparing various kinds of lexicons and the activity still continues. From ancient times we have such works as Amara, Viśva, Vaijayanti, Medini, Dhanañjaya, Abhidhăna-cintāmaņi etc. In modern times we have huge works like Sabdakalpadruma, Vacaspatya Bșhadabhidhāna, Sabdastomamahānidhi, Sabdacintămaņi etc. We have also Sanskrit dictionaries prepared by western scholars like Wilson, Monier Williams, Macdonell and others. Of these the most important and authoritative is 'the St. Petersburg's Sanskrit-Worterbuch in seven volumes prepared by the German scholars Roth and Bothlingk. The work occupied more than fifty years of life of these scholars. It was published by the Royal Academy of Science, St. Petersburg (now Leningrad ), the imperial capital of Russia. For this reason the work is known to scholars as Petersburg Sanskrit Lexicon.
The Deccan College Research Institute of Poona has undertaken, on a large scale the preparation and publication of Sanskrit Dictionary based upon, the principles of the modern science of linguistics. Along with the preparation of this work the Institute is publishing. old Sanskrit lexicons, small and big, such as Anekārthatilaka, Amaramandana, Sāradiyā nāma-mālā, Sivakośa, Nānārtha-Ratna-Mālā etc.
This work also is being published with a similar purpose in view. It will, it is hoped, meet with approval of those scholars who desire to see the works of various branches of Sanskrit learning published.
The name of the author of this work is not known nor are there any definite indications in the beginning or end of the work by which we can know something about the religion of the author. So, what the learned editor has said in his introduction, is proper.
There are, however, one or two references in it by which one may guess that the author was a Jain. I refer to one of them for the
consideration of the learned. In the 56th verse of the first Muktaka four meanings of Jina' are given, viz. (1) Vitarāga (as worshipped by the Jains) (2) Vişnu, (3) Kandarpa and (4) Sāmānyakevalin. Of these the first two are to be found in other lexicons; but the third and the fourth meanings are not to be (generally found in other lexicons. Of these the
fourth meaning viz. Sämanyakevalin deserves special notice. According · to Jain scriptures those who attain Keyala Jñāna are called Kevalins;
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iv )
and of these those kevalins who establish new Tirthas are called Tīrthňkaras, while the rest simply Sāmānyakevalins; but both are necessarily called Jina. The use of the word Sāmānya-keyalin is not usually found anywhere excepting the Jain works; and so it is a technical term of Jainism. It is therefore possible to say that the author of the work might have been a Jain.
There is another reference which should also be considered. In verse 71 of the first Muktaka four meanings of the word · Jayanti' are given. Of these the first indicates a city, the second a kind of herb, the third a daughter of Indra and the fourth the · Anujā' of Cetaka. This last meaning has a special connection with Jain tradition and literature. According to these, Cetaka was the Gaņādhipati of Vaisāli of Videha and Jayanti was a follower of Bhagavān Mahāvīra. There are interesting references to Jayanti in the Jain Āgama and story literature. There is no reference whatsoever to Jayanti in any other Indian literature, However, there is a divergence in the relationship of Jayanti to Cetaka according to the Sabdaratnapra dīpa. Whether the author of this work had some other Jain tradition in view or whether he is erring we cannot say. Whatever that may be, this reference shows the author of our work familiar with Jain traditions, which was not usual in non-Jain writers. So this reference leads one to believe that the author of this work might have been a Jain.
The reference to Siva in the beginning is suggestive of Mangala and has a proper place in Jain tradition also.
At the time of printing the old original mss., out of which the copy was prepared, were not available and therefore a few readings have remained doubtful. As other mss. were also not available, these doubtful readings could not be amended.
Anekanta Vihar, Ahmedabad
25-9-56
Muni Jinavijaya
Hon. Director, Rajasthāna Purătattvänveşaņa-Mandira
JAIPUR
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Introduction
Manuscripts : This edition is primarily based on two manuscripts from the Bhandars at Jesalmer:
A- A paper manuscript (No. 337) from the Big Bhandar. It consists of 6 leaves, 10" x 43" in size. There are 18 lines on each side, and each line contains about 56 or 57 letters.
B- A paper manuscript from the Bhandar of Dungarji Yati.1 It consists of 8 leaves, 10" X 41 in size. Each page contains 15 lines, and each line consists of about 49 or 50 letters.
Both the manuscripts are undated.
The text is further collated with a manuscript of another work, the adhyâyas of which considerably correspond to the first three adhyayas of this work. It, however, contains no portions corresponding to the remaining two adhyāyas of this work. The manuscript is designated C and may be described as follows: i C- A paper manuscript of Barriers from the Vrddhichandra Bhandar at Jesalmer. It consists of 5 leaves, measuring 10" X 44". The back side of the last leaf is entirely blank, while the writing on its front side covers about half portion of the space,
The colophon of the manuscript states that it was copied at Subhatapura on Sunday, the fifth day of the dark half of Māgha in V. S. 1732 (1675 A. D.) * Of these A was..copied verbatim et literalim by my colleague Prof. K. K. Shastree, who was deputed to Jesalmer by the Gujarat Vidya Sabha at Ahmedabad, to copy some selected manuscripts there under the guidance of Muni Jinavijayji. He also collated his copy with the other two manuscripts and noted all variants found in them. This edition is prepared by me on the basis of this material supplied by the Gujarat Vidya Sabha. I have selected apt readings from any of the three manuscripts and tried to amend trivial variants which obviously appeared to be clerical errors. I have, however, had to leave a few inexplicable 1.8 Cf. Catalogue of Manuscripts in Jaisimer Bhandars,
.
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vi )
readings as they are, in asmuch as they could not be referred back to the original manuscripts which were not at my disposal while preparing this edition. I felt this difficulty vehemently in the case of the fifth adhyāya, which is copied very unsatisfactorily in both manuscripts. I have endeavoured to trace the correct readings as far as possible, but have succeeded only to a certain extent. The material for all the remaining adhyāyas was to the mark on the whole.
All the manuscripts are complete in their contents. C has, however, left off the last twenty verses (Nos. 73-92) of the second adhyāya, six (Nos. 73-78) of which are later given as an addendum at the end of the work.
• A comparative study of the manuscripts brings out a few peculiar features, which may be noted as follows: (i) A contains the largest number of verses on the whole. (ii) B omits a number of verses that are given in A, but it rarely adds any verses that are not given in the latter. (iii) In comparision to B, C differs from A considerably in omission as well as in addition. (iv) In relation to A, B and C contain a number of common variants some of which are preferable to those given in A.
The Title : The title of the work is generally given in its colophon, but the manuscripts of this work contain no general colophon at all. The adhyāyas, however, bear colophons, some of which specify the title 9734TMS . It is especially specified in the colophon of the last adhyaya in both manuscripts. The title is not mentioned anywhere in body of the work, nor do any verses hint at the exposition of its significance. But the title given in the colophon of the adkyāyas is a very apt title for a lexical work of this type.
'Taaragtt' means a lamp of word-jewels.' The jewel-lamp' is not uncommon in the Sanskrit literature. The metaphor of 'word-jewels' is very similar to that of 'word-pearls' given in the first introductory verse in A. The lexicon is thus likened to a lamp, which enlightens full aspects of jewels in the form of words. The title applies to this lexicon very appropriately, as it elucidates the denotation of several words, especially those that yield more than one meaning.
Muktakas : A, however, employs a different metaphor for the nomenclature of the adhyayas. B designates them ogs', while C styles them 2. B. fa Tom asza firar ]at anta: His: #14:
B. इति शन्दरत्नप्रदीपे लोकाधिकारः चतुर्थकांडः समाप्तः । B. la propuesta porfar: 024: ER 991473 Į A. giờ lê xa q=HT gh[]: HIG: 1.
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(vii
simply 'plas'. But the colophons in A uniformly represent them as '993.' '9 ' may technically denote a single verse, the meaning of which is complete in itself. But here the form is applied to a canto, and seems to convey the general sense of a pearl.' This is explicitly elucidated in the first verse given in A, wherein the word is figuratively styled 'word-pearl' (TOTA ). In accordance with this sense each canto may be taken to be a string of word-pearls (Total , which the verse introduces to the learned with special recommendation,8 Thus the term 6 well applies to the significance of the introductory verse in A. The use of this term may further be traced to the concluding verses of Cantos III and IV in both manuscripts. It is, therefore, adopted preferably in this edition, though it does not fit in the general title of the work.
Contents : The 376479&iq is a work of lexical character, as mentioned above. It consists of five g as in all. The first three of them deal with homonyms, 5 the different denotations of which are enumerated in detail. The words are not arranged according to the alphabetic order of their initial or final letters. Nor are they classified according to the number of their syllables. But they are here classified into three sections on the basis of another peculiar principle. The first deals with those homoayms, to which the author has to devote a full verse in order to enumate the different denotations of each of them. It is, therefore, styled
lic. The second to deals with those homonyms that can be treated in a half verse each. So it is called s tafore. The third 65 deals with those homonyms, each of which requires only a quarter of a verse for the enumeration of its different meanings. It is, therefore, styled Tiet . This system was very common in the Sanskrit lexicons of this type. 6
The subject-matter of the fourth y differs widely from that of the other a s. This 6% is devoted to the elucidation of the full denotation of technical terms like i, at, 2618, ferunt, qurfesa, g477, etc.
The fifth deals with indeelinables( 8740), many of which denote more than one meaning. It is, however, not restricted to eat 3. शुद्धवर्णमनेकार्थ शब्दमौक्तिकमुत्तमम् ।
og gila Pazit: erat fqif124 11 (1,9). 4. Cf. III, 32 and IV, 86 in the text. 5. Here the term is intended to denote words having the same form but different
meanings ( Bazore or afar ). 6. e. g.. in the शाश्वतकोश, the हारावली, the अनेकार्थध्वनिमञ्जरी, etc.
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vili
indeclinables, for some indeclinables treated in this are as well. Nor is this confined to any of the different classes pertaining to the system mentioned above. Some indeclinables are treated in full verses, some in half-verses, some in quarters of verses, and some even in fragments of quarters. Here it may be noted that indeclinables are not infrequently associated with homonymous substantives, as most of them bear several senses.
The lexicon contains about 350 verses. It treats about 397 homonyms: 94 in full verses, 181 in half-verses, and 122 in quarters of verses. The fourth मुक्तक devotes 85 verses to the explanation of technical terms which number more than two hundred. The last deals with more than a hundred indeclinables in 40 verses. Thus the is a small lexicon, which treats only about 700 words in all.
Treatment: The lexicon is written in verse, which was the usual form adopted for scientific works with a view to facilitate students to commit them to memory. The verses are all composed in the अनुष्टुभ्. except the two nafs given at the end of the Third and Fourth. It would have been better if the author put a corresponding af at the end of the others as well.
The introductory verses (I, 1-3) are dedicated to Speech. Sarasvati, the Goddess of speech, is the only deity invoked in the The homonyms are not arranged according to any particular order. The choice of the first three homonyms (viz. fara, it and gft) however, seems to be significant. The author has simply aimed at classifynig homonyms according to the number of the s required to enumerate their different denotations. Accordingly the homonyms treated in the first generally yield four to eight meanings, those in the second usually convey two to four meanings, while those in the third generally bear only two meanings. The system of grouping homonyms according to लोकाधिकार, अर्ध-लोकाधिकार and पादाधिकार is also adopted in some other lexicons like the
Like the auhor of this lexicon also follows no principle of arrangement for the inter se order of the numerous homonyms treated in his lexicon. Some other lexicons, however, have their homonyms arranged according to the alphabetic order of their initial letters or final consonants. The homonyms in the , for instance, are all arranged
Cf. n. 6 above.
7.
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tix
in an alphabetic order of the initial letters, while the fa has adopted the alphabetic order of the final consonants. Hemachandra has curiously combined both these orders in his a wherein the words in each are first arranged in an alphabetic order of the final consonants and the words ending in a common consonant are then arranged in an alphabetic order of the initial letters. In the all homonyms are first arranged according to their final letters as कान्त, खान्त, etc., each of these groups is next arranged according to the number of syllables as monosyllables, dissyllables, trisyllables, etc., and these words are finally arranged according to their initial letters. It, therefore, becomes very easy to find out a word in the lexicon. But the author of the has adopted none of these orders and arranged the homonyms at random. Hence it becomes very difficult to find out a word in this lexicon. An alphabetic Index of the homonyms has, therefore, been indispensable for it.
In the treatment of homonyms the author generally repeats the homonym along with each of its several denotations which are put in apposition to it, eg., हरिः सिंहो हरिर्भेको हरिर्वाजी हरिः कपिः ॥ ( 1, ६ ) But some times the author also adopts another method which facilitates him to cite more meanings by avoiding repetitions of the homonym. In that case the meanings are construed with the homonym in the
relatión, e. g.,
48
बाणे वाचि पशौ भूमौ
दिशि रश्मौ जलेऽक्षणि ।
स्व मातरि वज्रेऽग्नौ मुखे सत्ये च गोध्वनिः ॥ (१,१५ )
In the Third Muktaka wherein the homonym generally conveys two meanings, the meanings are sometimes compounded and the homonym is accordingly put in the dual, e. 8. वल्लवौ सूदगोपालौ ( ३.१० ).
Genders are shown merely by the form of the word, e. g., fara, fara: and far in I, 4.
The technical terms treated in the Fourth Muktaka seem to have been arranged according to the different categories of their subjects. They may be classified into regular groups as treated in synonymous lexicons, e. g., a (including political, administrative कर्मसचिव, प्रणिधि, व्यूह, सेना, आधोरण,
(i) Terms pertaining to the and military concepts). eg सम्राज् अपस्कर, दीर्घदर्श.
(ii) Terms pertaining to cattle, e. g., àga, âfadi, yanı, áfact, astet,
jardia.
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X
(iii) Terms pertaining to the arm, e. g., प्रकोष्ठ, करभ, प्रदेशिनी, अनामिका, म्याम, प्रादेश. वित्तस्ति, प्रतल, रत्नि, अरत्नि.
(iv) Terms pertaining to speech, eg., वाक्य प्रस्त, निरस्त कल्य, अश्लील. (v) Terms pertaining to colours, eg., श्वेत, बभ्रु, पिशङ्ग, शोण.
(vi) Terms pertaining to time, e. g, माधव, नमस् नभस्य, ऊर्ज, सदस्, तपस्य, राका, अनुमति, शिनीवाली, कुडू.
(vii) Terms pertaining to learning, e. g., aft, araf, eqfa.
(viii) Terms pertaining to the sacrifice, eg. होतृ, अध्वर्यु सोमपायिन् दीक्षित यष्टृ, हभ्य, कल्प.
(ix) Terms pertaining to woman, og., वोरा, सैरन्ध्री, कात्यायनी.
(x) Terms pertaining to the body, c g. कूर्च, तारका, जघन, नितम्ब, गुल्फ, and so on.
In the treatment of indeclinables the author has drawn no distinction between those that convey only one meaning () and those that convey more than one meaning (). The different denotations are here generllay put in the af, e. g.,
उखाणे फडत्याहुर्वषट् वौषट् तु तर्पणे । ( ५, २७ )
Thus the is not a merely homonymous lexicon like the शाश्वतकोश or the अनेकार्थध्वनिमञ्जरी. Nor is its title also confined to such a limited denotation. Nevertheless it does not tend to be a complete lexicon like the . It leaves synonyms out of its scope and hence it excludes a large number of common words that enrich the vocabulary of synonymous lexicons. Excepting the section of technical terms, the lexicon mostly appears to be a homonymous work. But even homonyms form a very small number in comparision to those given in a homonymous lexicon like the शाश्वतकोश.
The author: The colophons of the work contain no reference to the author. Nor do the verses of the text make any allusion to him. Thus the manuscripts contain no internal source of information about the author of the work. Nor do we come across any external data whereby we can definitely ascribe the work to. an author known from other the If the be as the शब्दरत्नदीप, it may be attributed to Kalyana-malla who is known to be the author of the latter. But as long as we cannot ascertain the identity of the two works, the author of the remains unknown to us.
sources.
same
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[xi
But from his particular preference to the words fa and at the commencement of the homonymous section we can infer that his personal leaning in religion was towards Saivism.
The date: As the work makes no mention of any earlier lexicons, it is not possible to fix the upper limit of its date in a definite way. But its lower limit can be assigned to the thirteenth century, as it is not infrequently quoted by Sumatigani in his मणघरसार्धशतकवृत्ति which was written in V. S. 1295 (1238-39 A. D.)
The homonymous section of this work bears great resemblance to the शाश्वतकोश, which is dated about the 6th century. 8 Like the शब्दरत्नप्रदीप, it als treats homonyms in full, half and quarter verses, and places words at random. But unlike the शब्दरत्नप्रदीप, the शाश्वतकोश has arranged the indeclinables in half and quarter verses. Secondly, both works commence with the word ',' and two verses (viz. I, 4 and I, 8) in this work are quite identical with the corresponding verses (Nos. 1 and 3) in the . But the works differ widely with respect to the selection of homonyms as well as the composition of the verses. The ोश is obviously more comprehensive and more copious than the शब्दरत्नप्रदीप as far as the homonymous section is concerned. However, this work has enlarged its scope not only by dealing with homonymous as well as nonhomonymous indeclinables, but also by adding a section on technical terms. Anyhow its close reletion to the deserves to be taken into consideration. Shri Ramavatara Sarma, and following him the late MMP Haraprasad Shastri10 enlists it among lexicons written mostly after the aft (which is assigned to the twelfth century), but I think it may be assigned to an earlier11 epoch on the ground that it has not adopted any regular order of arranging homonyms, which are usually arranged into certain systematic orders in the post-Šāśvata lexicons like the विश्वप्रकाश ( 1111 A. D.), the अनेकार्थकोश ( 12th cent.), the अनेकार्थसंग्रह (1088-1175 A. D.), the arrafa (12th or 13th cent.), and the मेदिनीकोश ( 12th cent. ). Accordingly the शब्दरत्नप्रदीप may be placed between the 7th and the 12th century.
The homonymous section of the
closely corresponds to
arafas copied in the Jesalmer manuscript which makes no
the
8. R. Sarma, Kalpadrukośa, Introduction, p. xxv.
9.
R. Sarma, op. cit., pp. xli ff.
10. Shastri Haraprasad, Descriptive Catalogue of Sanskrit Manuscripts, Preface, pp. cxlii ff.
11. Even R. Sarma doubts that some of the works enlisted in this group may be earlier (p. xli).
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mention of its author's name. It seems identical with the areas mentioned in Nos. 1029 and 1030 in the Catalogue of Sanskrit Manuscripts in the India Office. It is undoubtedly distinct from the starafasistit composed by Gadasimha in 88 verses. But many of its verses are identical with those in the sa19af945 ft composed by Mahākṣapaņaka of Kashmir ( generally ascribed to the 12th cent.), which contains 320 verses. It is, however, very difficult to ascertain relation between the शब्दरत्नप्रदीप and the anonymous अनेकार्थध्वनिमंजरी as well as that between the anonymous अनेकार्थध्वनिमञ्जरी and the अनेकार्थध्वनिमञ्जरी by Mahāksapanaka.
At the end I acknowledge sincere thanks to Muni Jinavijayaji and Prof. R. C. Parikh, who have given me guidance for this work. I also thank the Hon. Secretary of Gujarat Vidya Sabha for supplying the necessary material for editing this work. I should also acknowledge hearty thanks to my colleague Prof. K. K. Shastree who prepared the copy of the Jesalmer manuscripts as well as suggested some corrections in it.
Ahmedabad Date 20-2-'53)
HARIPRASAD SHASTRI
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शब्द रत्न प्रदीपः।
प्रथमो मुक्तकः। शुद्धवर्णमनेकार्थ शब्दमौक्तिकमुत्तमम् । कण्ठे कुर्वन्ति विद्वांसः श्रद्धधाना दिवानिशम् ॥ १ शब्दाम्भोधिर्यतोऽनन्तः कुतोऽप्यागमसंभवात् । स्वानुवाचैकमानाय तस्मै वागात्मने नमः ॥ २ सरस्वत्याः प्रसादेन कविबध्नाति यत् पदम् । प्रसिद्धमप्रसिद्धं वा तत् प्रमाणं च साधुमिः ॥ ३ "शिवं भद्रं शिवः शम्भुः शिवा गौरी शिवाऽभया । शिवः कील: शिवा क्रोष्ट्री भवेदामलकी शिवा॥ ४ गौरी शिवप्रिया पोक्ता गौरी गोरोचनो मतां । गौरी स्यादप्रसूता स्त्री गौरी शुद्धोभयान्वया ॥ ५ हरिरिन्द्रो' हरिर्भानुहरिविष्णुहरिमरुत् ।। हरिः सिंहो हरि को हरियंजी हरिः कपिः ॥ ६ हरिरंशुईरिीरुहरिः सोमो हरिय॑मः ।
हरिः शुको हरिः सर्पः स्वर्णवर्णी हरिः स्मृतः ॥ ७ १-२ These verses are not given in B and C. ३ B. साधवः ४ B. शिवः सर्वः शिवः शुक्लः शिवः कीलः शिवः पशुः ।
शिवा गौरी शिवा क्रौष्ट्री शिवं श्रेयः शिवा स्नुषा । ५ B. देवी. ६A. गौरोद्भवा. ७ C. स्मृता. C adds a st. before this:
श्यामा च श्यामवर्णा च श्यामा मधुरभाषिणी ।
अप्रसूता भवेत् श्यामा श्यामा षोडशवार्षिकी ॥ ९ C. "रिन्दुहे. १. After this verse Cadds : . • अर्कमर्कटमण्डूका विष्णुवासववायवः । तुरगसिंहशीतांशुयमाव हरयो दश ॥ दिग्दृष्टिीधितिस्वर्गवनवाग्बाणवारिषु । भूमौ पशौ च गोशब्दो विद्वद्भिर्दशसु स्मृतः ॥
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शब्दरत्नप्रदीपः
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धुर्मद्यं मधु क्षौद्रं मैंधु पुष्परसं (? सो ) मृदुः । मैर्दैत्यो मधुश्चैत्रो मधूकोऽपि मधु [ : ] स्मृतः ॥ क्षुद्रा वेश्या नटी क्षुद्रा क्षुद्रोक्ता मधुमक्षिका । असहिष्णुः स्मृतः क्षुद्रः क्षुद्रा स्यात् कण्टकारिका || वाह 'युग्यं घनो वाहः प्रवाह वाह उच्यते । disो मानविशेषश्च वाहो' बाहुरिति स्मृतः ॥ इष्टकादिचयो हारो हारो मुक्तागणः स्मृतः । हारो मपविशेषश्च होरेच क्षेत्रमुच्यते ॥ आत्मा भावो मनो भावो भावः सत्ता भवोऽपि च । भावः पूज्यतमो लोके पदार्थों भाव इष्यते ।! कुंथा कन्था समाख्याता कुथः स्यात् करिकम्बलः । कुथः कुशः कुथः कीटः " प्रातःस्नायी द्विजः कुथः ॥ १३ कुशे काले तिले च्छागे कम्बले सलिलेऽम्बरे" । दौहित्रे खङ्गपात्रे ऽग्नौ कुतपाख्या प्रवर्त्तते ॥ er वाचि पशौ भूमौ दिशि रश्मौ जले क्षणि । स्वर्गे मातरि वज्रेऽग्नौ मुखे सत्ये च गोध्वनिः ॥ श्रियां यशसि सौभाग्ये योनौ कान्तो महिम्नि च । सूर्ये संज्ञाविशेषेऽपि " मृगाङ्केऽपि " भगः स्मृतः ॥ १६ पर्जन्ये राज्ञि गीर्व्वाणे व्यवहर्त्तरि भर्तरि ।
१२
93
१५
१ A. मधु क्षौद्रं मधु मद्यं. ३ B. मधुर्दैत्य विशेषश्च. ५ B. क्षुदा स्यान्म. • C. बाहुः शिशुविशेषः स्यात्. १० A. मापे वि; C. मघावि १३ B. कीलः.
२ B. मधुश्चत्रो मधुर्मधुः ।
B. मधुकोsपि मधुर्मतः ॥ ६ A. युपे (?); C. योग्यं.
मूर्खे बाले जिगीषौ च देवोक्तिर्नरि कुष्टि (? न्ति) नि ॥ १७ तूर्यास्येऽसिफले पद्मकुञ्जराय करें" दिवि । द्वीपे तीर्थे निमित्ते च विशिष्टे पुष्करध्वनिः ॥
८
१४ B. ले सरे.
१६ B. डेच C. कोsपि. १८ A. करो.
१०
१४
१८
७ A. इत्यपि. A. B. C. बाहौ . ११ B. हारो रजतमु .
१५ B. C. °षे च.
१७ B. भगश्रुतिः : C. भगध्वनिः ।
१२ B. कुया.
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प्रथमो मुक्तक मूनि चित्ते जले काये मुखे ब्रह्मणि मारुते । कामे काले सुवर्णे च क शब्दो द्रविणे ध्वनौ ॥ १९ जीवे राज्ञि रवी धर्मे तपस्विनि' तुरंगमे । सिंते पक्षिविशेषे च हंसशब्दो हैरेऽपि च ॥ रसो जलं रसो हर्षों रसः शृङ्गारपूर्वकः । रसः पुष्पादिनिर्यासः पारदोऽपि रेसो विषम् ॥ २१ क्षीरे पुष्परसे तोये मण्डे मद्ये घृतेऽसृजि । सप्तस्वर्थेषु कीलालं कथयन्ति मनीषिणः ॥ तिलपिष्टे मले मांसे कम्बले कोमलेऽस्थनि । वत्से क्षीबे बले प्राज्ञाः पललं परिचक्षते ॥ २३ हये पुच्छे ध्वजे पुण्डे शैले पुंसि गुणाधिके । वित्ते" धामनि भूषायां ललामेत्युत्तमे स्मृतम् ॥ २४ वसुः सूर्यों वसुर्वनिर्वस्वचिसोऽसँवः । वसु रत्नं वसु द्रव्यं वसवोऽष्टौ धरादयः ॥ २५ अक्षराणि स्मृता वर्णा वर्णाः श्वेतादयो गुणाः। वर्णी नाटयामुखे गाथा वर्णा ज्ञेया द्विजादयः॥ २६ शैक्लो वर्णोऽर्जुनो नाम पाण्डवोऽप्यर्जुनः स्मृतः।
अर्जुनस्तृणजातिः स्यादर्जुनः ककुभो मः॥ २७ १ A. 'स्वनि. २ A. शिते. ३ C. विधीयते. x Comits this verse. ५ B. रसं.
६ B. पुष्पे रसे. But then the word will yield more than seven senses. Again, B repeats to in the second quarter.
७ B. मद्ये मण्डे रसेऽसृजि । C. मद्ये मेघे. ८ B. प्रवदन्ति. ९ A. 'पृष्टे; C. पिष्टमले च माले च. १० A. मासे. ११ C. मनि । १२ A. सदा क्षीवे; C. संज्ञायां जीवने.. १३ A. पुण्ढ़े (१) १४ A. विरौ (i); C. विषे. १५ A, 'त्तमं. १६ B. मतः। १७ A. स्वश्रिर्व'. १८ A. वोऽसवः । १९ C interchanges b-d. २० A. स्वेता. २१ A. वर्णो. २२ B. शुक्लोऽर्जुनो नाम वर्णो. २३ C. नो मतः. २४ A. भः [स्मृतः ॥
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शब्दरत्नप्रदीपः वर्णस्यावरणं पट्टः पट्टो भू हिताक्षरः । . वीरदीक्षापैटः पट्टः पट्टः स्याँदधिवासनम् ॥ बलि पूजोपहारः स्याद् बलिर्दानवपुंगवः । बलिः स्त्रीमध्यभागोमिलिश्चम जराकृतम् ॥ रन्ध्र वस्त्रे तथा मध्ये व्यवधानेऽन्तरात्मनि । बहियोगेऽवकाशे च विशेष व्यसनेऽन्तरम् ॥ अरिष्टं गृहमित्युक्तं अरिष्टो वृषभाँसुरः।। काकनिम्बावरिष्टौ चारिष्टं क्षेममिहेरितम् ॥ ३१ इन्द्रियं कम्बलं ज्ञेयं कम्बलो रोमजः परः । कम्बलश्च गवां सास्ना कम्बलं कमलं स्मृतम् ॥ मण्डैलं वर्तुलं प्रोक्तं संघातो मण्डलं स्मृतम् । मण्डलं भूमिभागश्च मण्डल सु(? स)रमासुतः ॥ ३३ कुन्तल केशपर्यायः कुन्तलो देशवा.कः । कुन्तलः सूत्रधारश्च कुन्तहस्तथ कुन्तलः ।। मणिलिङ्गाग्रिमो भागो मणिः प्रोक्तो भगध्वजः। मणिः कूपर्मुखोत्सेधः पद्मरामादिको मणिः ॥ ३५ तन्त्रं शास्त्रं कुलं तन्त्रं तन्त्रं सिद्धौषधिक्रिया। तन्त्रं सुखं बलं तन्त्रं तन्त्रं वैप(? य)नसाधनम् ॥ ३६ नेत्रं वस्त्र विशेष: स्यात् नेत्रं चक्षुरुदाहृतम् ।।
परावर्तगुणो नेत्रं नेत्र: कस्तूरिकामृगः ॥ १ B gives this verse after the next one. २ B. पटे.
३ B. दपि चा(१ वा. r B gives this line after the next one. ५ B. र्योगविकाशे.
६ A. सरा; C. च तरे(? रे)ऽतरं । ७ B. भोऽसुरः । C. ट; स्याद् वृषापुरः ।। ८ B. च अरिष्टं क्षेममीरितम् ॥ ९ B. प्रोक्तं. . १. B. विदुः ॥ 99 B gives this line after the next one. १२ B. C. मतम् । १३ C. सुरता श(श्रोतं. १४ C. पालकः । १५ C. प्रभागः स्याद. १६ B. ° गो व्रजः (6)। १७ B. 'मुखः सन्धिः १८ A. C. वचनसाधनम् ।
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प्रथमो मुफकः वातादिप्रकृतिर्धातुर्धातुः शैलोद्भवः स्मृतः ।। क्रियाभावः स्मृतो धातुर्धातुहरसादिकः ॥ ३८ कॉण्डो बाणस्तुला काण्डः काण्डः संपाते इष्यते । काण्डः कालो बलं काण्डं काण्डं मूलं तरोरपि॥ ३९ सुधा प्रासादभाग्द्रव्यं सुधा विद्युत् सुधामृतम् । सुधेह भोजनं ज्ञेयं सुधा धात्री सुधा स्नुही ॥ ४० वेला कालविशेषः स्यात् वेला सिन्धुजलोद्धतिः। वेला सेवागुलिच्छेदो वेला द्रोण्यान्तरोवनिः ॥ ४१ उत्सवे च प्रकोष्ठे च मुहूर्ते नियमे तथा। क्षणशब्दो व्यवस्थायां समयेऽपि" निगद्यते ॥ ४२ भ्रूणो भीरुर्विजो भ्रूणो भ्रूणो गर्भाशयाश्रयः । भूणोऽन्त्यजः शिशुभ्रूणो भ्रूणो विकल उच्यते ॥ ४३ श्रेष्ठं इन्द्र इति ख्यातो देवराडिन्द्र उच्यते। शब्दादिविषयाः पञ्च प्रसिद्धा इन्द्रसंज्ञया ।। ४४ अहिदैत्यविशेषः स्यात् सूर्योऽहिरहिरवंगः। भुजंगोऽहि[:] समाख्यातः सिंहिकासूनुरप्यहिः॥ ४५ व्यालोऽहिः श्वापदो व्यालो व्याला स्याद्व्याकुल करी। प्रमादवान् नरो व्यालो "सिंहो व्याल उदाहृतः ॥ ४६ पयस्विन्यर्जुनी धेनुर्धेनुः कुञ्जरकामिनी। असिपुत्री स्मृती धेनुर्धेनुर्वृत्तिः शुभंकरी ॥ . ४७ धम्मों वृषो वृषः श्रेष्ठो वृषो गौमूषिको" वृषः।
वृषो बलं वृषः कामो वृषलो वृष उच्यते ॥ 9 B gives this line after the next one. २B. C.सै शैलोपलोद्भवः । B. देहे र.. x C gives this verse after the next one. ५ B. C संघात. ६ B. बुध्न तराणि च। C. प्रसेव प्रभवे द्रव्यो(व्यं) ८C. सुधैव ९ C. नतिः । १. B. वनी। C. "न्तरे ध्वनिः । , ११C. उत्सेधे. १२ C. ये च. १३ A. 'श्रयाशयः ।। १४ B gives this line after the next one. १५ A. जेन्द्र १६ C. यान्ते च......शक्रपाः । १. B. सूर्योरहि (१)अहिध्वजः । १८ A, प्रनाद'; C. प्रासाद १९ A. ग्यालो बाल. २० B. मता. २१ षको
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शब्दरत्नप्रदीपः
५०
शलिर्मूर्खः शलिभृङ्गः शलिः कीलः शलिर्गदः । शलि: पर्व्वविशेषश्च शलिः कलिरुदाहृतः ॥ योगो ज्यातिर्विशेषश्च संयोगो योग इत्यपि । htra गामिलाभः स्यात् समाधिर्योग उच्यते ।। सीता लक्ष्मीरूमा सीता सीता सस्याधिदेवता । सीता सीरध्वजापत्यं सीता मन्दाकिनी मता ॥ आदिमः क्षत्रियो नाभिर्नाभिचक्रस्य पिण्डिका । कुटुम्बस्याग्रणीर्नाभिर्नाभिर्निम्नोदरा मताँ || गोत्रं नामान्वयो गोत्रं गोत्रच धरणीधरः । गोत्रा वसुंधरा प्रोक्ती गोत्रः सत्यवचः स्मृतः || ५३ घनो मेघो घनं सान्द्रं कांस्यतालध्वनिर्धनः । घनो मन्द्रो घेनं नित्यं घनः स्याल्लोहमुद्गरः ॥ रोमा स्त्री जामदनिश्च रामो रामौ सितासितौ । रामः पशुविशेषश्च रामो दशरथात्मजः ||
४९
next one.
५१
५२
2224
५४
५५
रागो जिनः प्रोक्तो जिनो नारायणस्तथा । कन्दर्पः स्याज्जिनश्चैव जिन: सामान्यकेवली ॥ - शुक्रं देहवतां बीजं शुक्रमक्षिरुजं विदुः । ज्येष्ठमासः स्मृतः शुक्रः शुक्रो दैत्यपुरोहितः ॥ बीगोदण्डः प्रवालैः स्यात् प्रवालः पल्लवो नवैः । प्रवालो विद्रुमः प्रोक्तः प्रवालः प्रबलो मतः B throughout gives af. B gives २ B. शपथ (? पथ ) . ३ B. योनिं .
11
५८
this verse after the
४ B. षः स्यात्.
५ B. योगः स्याल्लब्धिलाभश्च; C. °मिको लाभः
C. क्षमा.
७ C. स्मृता.
• B. C. ज्ञेया
B. नो; C. नो मुस्ता
1. B omits this verse; C gives this verse and the next one after No. 59.
११ C. षः स्याद.
For C cf. n. 3 above.
५६
५७
१२ B omits this verse
१३ B C omit this verse.
१४ C gives this verse and the next one before No. 55. १५ B. लं. १६ B. मतः ।
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प्रथमो मुक्तकः
६०
६१
harisar महिषः कोणः कोणः कोटिरिति स्मृतः । कोणो गृहैकदेशः स्यात् कोणो वीणादिवादनम् ॥ ५९ ताल: कालक्रियामानं तालं पातालमिष्यते । वृक्षभेदः स्मृतस्ताल: तालः करतलध्वनिः ॥ . काष्ठा दशा ककुभ् काष्ठा काष्ठा प्रोक्ता वसुंधरा । काष्ठा कालविशेषः स्यात् काष्ठं दारु निगद्यते || पैलाशो राक्षसः ख्यतः पलाशैश्छदनं स्मृतम् । पलाशो हरितो वर्णः पलाशः पाश उच्यते ॥ सत्रं गृहं धनं सत्रं सत्रं दानमिहेरिर्तम् । सत्रं धाँम वनं सत्रं सत्रं सेच्चरितं मतम् ॥ कलासु कुशलः कल्पः कल्पो ज्ञेयो निरामयः ॥ कल्पं कालमिति प्रोक्तं कल्पं मधेमिति स्मृतम् ॥ विष्टरो बर्हिषा (? पां) मुष्टिर्विष्टरं ज्ञेयमासनम् । विष्ट वृक्ष इत्युक्तो विष्टरः क्रतुरेव च ॥ सभा समितिरित्युक्ता समितिः संयुगावेनिः । समितिः समयो ज्ञेया समितिः "संगतिः स्मृती ॥ सितः शुक्लः सितो वृद्धः सितं रजतमुच्यते । सायकोऽपि सितो ज्ञेयः सितो दैत्यपुरोहितः ॥ चित्रकं तिलकं प्रोक्तं चित्रकः श्वापदो मतः । . चित्रको मूलजातिश्च चित्रको व्यन्तरो मतः ॥
६४
६६
A. C. cf n. 10 on p. 6 २ B. शव.
B gives b before a
४ B स्मृतः ५ B. सं सदनं ज्ञेयम् A. नाम; B. सीम (?) ८ C. ९ C. सरित १० B. C. B प्रकीर्तितम् ; C°द्यं विशेषतः । १३ C. समये; B. संयुगो. १४ A. B. ज्ञेयः १७ B, C, सितो वृद्धः सितः शुक्लः १८ C.
६२
६३
६५
६७
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६ C. मिति स्मृतम् । धनं, but cf. धनं सत्र in a. कल्य, but cf. मद्य in d. १२ B. वनी ।
१५ A. संगितिः १६ C. 'तिर्मता ॥ मिष्यते । १९ B. C. रोरगः
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शब्दरत्नप्रदीपः
७०
धातकी प्रोच्यते धात्री धात्री चामलकी मेना । धात्री वसुंधरा ख्यातां धात्री स्यात् स्तनदायिनी ॥ ६९ द्रोणः स्यात् कौरवाचार्य (? र्यो ) द्रोणः काक इतीरितः । द्रोणो गिरिविशेषः स्याद् द्रोणः स्याच्चतुराढकः ।। जयन्ती नगरी प्रोक्ता जयन्ती चेटकानुजा । जयन्त्यौषधभेदः स्यात् जयन्ती शक्रसंभवा ॥ रोहितः शक्रकोदण्डो रोहितो मत्स्यगपुंगवः । रोहितो लोहितो वर्णो मृगजातिश्च रोहितः || aat rat बलं सैन्यं बलं सेवं बलौषधी । रत्नयोनिर्बलो दैत्यो बला लक्ष्मीर्बला मही ।। प्रतिग्रहो द्विजग्राह्यः सैन्यपृष्ठं प्रतिग्रहः । प्रतिग्रहोऽनुबन्धेः स्यात् प्रतिग्राहः प्रतिग्रहः || कुमातृकं कदम्बः स्यात् कदम्बो "विशिखो मतः । कदम्बो वृक्षभेदव कदम्बो निर्गुणः पुमान् ॥ प्रियको बीजसारो 'दुः प्रियको " द्वीपिचित्रकः । प्रियः प्रियतोयः स्यात् प्रियको मुक्तकेंवती ॥ अक्षो विभीतको वृक्षः पाशकोऽक्षोऽक्षमिन्द्रियम् । अक्षो रावणिरित्युक्तः कुल्यमक्षं च निम्नगम् ॥ चक्रः पक्षिविशेषश्च चक्रं व्यावर्तनं मतम् । चक्रं राष्ट्रं च संघश्व रैथाङ्गं चक्रमायुधम् ॥ सत्यसंधैः खरो ज्ञेयः खरोऽपि पैरुषो मतः । खरो रासभ इत्युक्तो व्यवहारपटुः खरः ।।
७४
७५
७६
३ B. च
१ B. शिवा.
▾ B. qu.
B. रोहितं.
११ C. घश्व. १४ C. स्मृतः । १६ B. बीज
१८-१९ B-C १९ C. द्रव्यांग
२ B. ज्ञेया. ५ B द्रोणश्च चतु.
७१
१७ B. कः (को) व्र
interchange b and d.
२० B. बंधः
७२
७३
७७
७८
७९
B. दण्ड.
A omits this verse. A. सत्यं. १० B. पृष्ठे. १२ B. C. कुमारिका. १३ B. मंत्रः शिखरो; C. म्त्रः शिखरः १५ B.
C. सारंगः |
२१ C. पुरुषोत्तमः ।
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प्रथमो मुक्तकः जातिः स्यात् सहजोख्यानं मालती जातिरुच्यते । गोत्रादि जन्म जातिश्च जाति चुल्लीति कथ्यते ॥ ८० गोविषाणं फैणो ज्ञेयो भुजंगमणः फणः। फणा जटा फणा कृष्णा फणा मन्थानकुण्डली ॥ ८१ तिलको वृक्षभेदः स्यात् तिलको बिन्दुचित्रकम् । तिलकं क्लोमसंझं स्यात् प्रधानं तिलकं मतम् ॥ ८२ गन्धर्वो देवजातिः स्यात् गन्धर्वः स्यात् तुरंगमः। गन्धर्वश्च स्मृतो गाता गन्धर्वो मृगपुंगवः॥ शृङ्गं प्रधानमिच्छन्ति शृङ्गं च शिखरं विदुः । शृङ्गं विषाणमित्याहुः शब्दकोशविचक्षण[T]: ॥ ८४ सारंगः कुअरः ख्यातः सारंगश्चातको मतः। सारंगः पर्वतो ज्ञेयः सारंगो हरिणः स्मृतः ॥ करणं कारणं विद्यात् करणानीन्द्रियाणि च । करणो जातिभेदश्च क्षेत्रं करणमिष्यते ॥ पुण्डरीकः स्मृतो व्याघ्रः पुण्डरीका कमण्डलुः । पुण्डरीकः सितो वर्णः पुण्डरीकं सरोरुहम् ॥ फैमलं कमलं प्रोक्तं कमलं चन्द्रमा भवेत् । कमलं क्रमयुग्मं च कमलं मस्तकं विदुः ।। कमलं जलमाख्यातं कमलो हरिणः स्मृतः। . कमलो जलदः प्रोक्तः कमलं मुकुटं विदुः॥ ८९ अपत्येऽय पृथिव्यादौ कालेऽतीते च राक्षसे ।
"प्रेते माणिनि कीनाशे भूतशब्दं मचक्षते ॥ ९० C. 'जज्ञानं. A. धोणीति ; C.(चुलीच. ३ B. फणा लेया. ४ B. 'फणा फणा । ५ A. तिलकं. C. बोऽपि.
A. गीतो. .C interchanges a and b, giving 'तको ज्ञातः and 'करो मतः । ९ Comits this verse. 1. B interchanges b and d. ११ B. गं. १२ A. वृक्ष १३ B C omit this verse. १४ BComit this verse; A gives it in the margin. १५ A. C. अपम्ये ; B. औपम्ये.. १६ A. प्राप्त. १७ B. प्रकीर्तितम् ।
८८.
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शब्दरत्नप्रदीपः सरभोऽष्टापदो ज्ञेयः' स्वर्णमष्टापदः स्मृतः । "किलीतकोऽष्टादः स्यात् कृमिजातिरुदाहृतः॥ ९१ बालः केशो जलं बालं बालं काशतृणं तथा। बालकं गन्धद्रव्यं च जटाजूटं च बालकम् ॥ ९२ बालकः खेचरो व्याघ्रो बालकः पृथुकस्तथा। बालः सर्पः शिशुर्बालो बालो वेग उदाहृतः॥ ९३ श्यामा रात्रिस्त्रिवत् श्यामा श्यामा स्त्री मुग्धयौवना।। श्यामा प्रियंगुराख्याता श्यामा स्याद् ददारिका ॥९४ शुभा सुधा शुभा हत्या भंगक्षीरी शुभा मता। शुभं श्रेयः शुभा शोभा शुभा प्रोक्ता हरीतकी ॥ ९५ कान्तारं काननं प्रोक्तं कान्तार[:)" पाकशासनः। इक्षुभेदध कान्तारः कान्तारो दुर्भरोदरः ॥ ९६ खर्जूरं फलभेदर्थं खरं रजतं मतम् ।। खर्जुरः क्षुद्रजातिः स्यात् खजूरस्तृणगोधिकों ॥ ९७ गुरुः पिता गुरुज्येष्ठो गुरुर्देवपुरोहितः । दुर्वाहोऽपि गुरुः प्रोक्तो गुरुः "शिष्याभिषेकदः॥ ९८ इति शब्दरत्नपदीपे" श्लोकाधिकारः प्रथमो" मुंक्तकः ॥ .
C. 'दश्चैव. २ B. °पदं मतम् ; C. पदं स्मृतम् । 1 B. कीलि'; C. कि(की)लालको. ४ B. C. पदश्च. Comits this line. B interchanges this line with
the second line of the next verse. . B. जालं. ८ C. कः स्मृतः ।
SB interchanges this line with the second line of the previous verse. Comits it. १० C. वृद्धा दा.
११ B. स्नुही; C. स्नुहीक्षीस. १२ C. ख्याता. १३ B. C. रं. १४ B. 'दः स्यात् ; C. °लका(को) वृक्षः. १५ C. कोचिका । 96 C omits this verse and gives the following verse instead: ____वालीकं हिंगुमा(रा)ख्यातं वाह्लीकं कुंकुमं तथा ।
वाहलीकः स्याज्जनपदो वाहलीकोऽ(का)श्वोऽ(वा)श्वजातयः ॥ B adds it before this verse १७ B. शिष्यादयः स्मृताः॥ १८ A omits; C. इत्यनेकार्थध्वनिमजा. १९ B. C. °मः । २. B. कांडः समाप्तः; C omits.
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द्वितीयो मुक्तकः। इतः प्रभृत्यनेकार्थाः शब्दाः श्लोकाधगामिनः । वेदितव्या बुधैः पश्चात् प्रत्यहि कृतसंग्रहाः॥ तेटो वमः पिता वमो वः प्राकार उच्यते ।। सो व्याडः शफो व्याडो व्याडो ज्ञेयश्चतुष्पदः ॥ २ अङ्गे दारेषु शय्यायां तल्पशब्दो विधीयते । तारास्वनौ गृहस्थाने धिष्ण्यमाहुर्मनीषिणः ॥ ३ अभिख्येति समाख्याता की” कान्तौ च नाम्नि च । रम्भा देवाङ्गना प्रोक्ता रम्भा स्यात् कदलीति च ॥ ४ मोचा खल्येति विख्याता मोचापि कदली मता। कक्षेति भवनान्तभूम(? मे)खलागजरज्जुषु । ५ स्यादापाढे विशुद्धेऽनौ शुक्रेऽनुपहते शुचिः। शेक्रेऽपि वार्षिके मेघे मत्तनागे घनाघनः ॥ संक्षेपे भक्तसित्के(क्थे) तुच्छधान्ये पुलाक-वाक् ।
(ब)ले मरुति मासाः पक्षोभिभवपाश्चयोः॥ ७ वृक्षभेदे" करीरः स्यात् घंटे वशङ्करेऽपि च । देहे दारेषु केदारे क्षेत्रं बुद्धः? द्वे) प्रकीर्त्यते ॥ ८ श्रेष्ठं कम्बलमेल्पं च विद्यादेकाक्षरख्य)या बुधः। . निहो निर्गते" पीडानिसर्गद्वारभूमिषु ॥
अविशब्दो रवौ मेघे पर्वतेऽपि निगद्यते । मुंगपर्वतमन्त्रेषु निकृष्टेऽपि च संवरः ॥
१ B. वटो वप्रं. २ B. C. केदार. .. A. B. पथः । ४ B. रंगे. ..५ B. °ब्दोऽभिधीयते ।
C. °र्विचक्षणाः । . ७ C. च.
C. °ली मता ॥ ९ B. खल्वेति. १. C. मोचा च... " B. शुक्रे... १२ A. C. 'पिच्छे. १३ B. C. बाले. १४ A. C. 'भेदः १५ A. पटे.
१६ C. भ्याकरे' १७ A. दारे च. १८ B. शुद्धोद्धे) च की.
१९ B. मन्नं. . २. B. "देकं क्षयं. . २१ B. C. निर्गता ; A. निर्मिते. . २२ B. अचि . २३ C. ते च. २४ B. C. शृंग.'
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शब्दरत्नप्रदीपः धुनो(?) धवे च दम्भे च गहरे गहनेऽपि च । न्याये तुल्ये विधौ काले दण्डे वित्ते च कल्प-वाक् ॥ ११
आत्मेति ब्रह्म-धी-देह-मनो-यज्ञ-धृतिष्वपि । पर्याप्तौ शिक्षिते पुण्ये क्षेमे च कुशलध्वनिः॥ १२ प्रत्ययः शपथे छिद्रे विश्वासास्तित्वहेतुएं । पदं स्थाने परित्राणे क्रमे वस्तुपतिष्ठयोः॥ १३ दोषे व्यपगेमे दण्डे स्यादत्यय इति श्रुतिः।। स्वभावे तेजसि स्थाने धामशब्दो निगद्यते ॥ १४ ज्ञाता(तौ) चात्मनि चात्मीये धने स्वाख्या प्रयुज्यते। कूटाख्यानृतंयन्त्राभ्यां घने मायाधरेषु च ॥ १५ परिच्छेदे प्रमाणेऽल्पे मात्राख्या परिकीर्त्यते । इडाशब्दश्च पानीये भूमौ वा व्यसैने मतः॥ १६ साधु-सत्ता-प्रशस्येषु त्रिष्वेव सदिति ध्वनिः । प्रधाने राज्यलिङ्गे च ककुदाख्या प्रवर्तते ॥ १७ मानमण्डनयोनिष्को निष्को दीनाररुक्मयोः । युग्मै (ग्य)संयोगयोरङ्कः स्यादको लेख्यलक्ष्मणोः । विशिरस्के नरे नीरे कबन्धाख्या खलेऽपि च ॥ १८ मरौ वृक्षविशेषे च धन्वन्-शब्दश्च कार्मुके। .
अतिलोम स्मृतं वर्त्म वर्त्म मार्गश्च कैथ्यते ॥ १९ वर्म ,हप्रमाणं स्याद् वर्म देहश्च कथ्यते ।
दायादः सहन(ज): प्रोक्तो दायादस्तनयः स्मृतः ॥ २० • A. धुनी. २ C.-वाग-. A. "स्तिक[शा]नुषु । ४ B. लक्ष्ये ; C. लक्षे. ५ A. 'गते. C. प्रवर्तते. B. ख्या मृग'. ८ A. क्षरेऽपि ; B. करेषु. ९B. 'त्राणे. 1. B. कीर्तितः(ता), C. च प्रवर्तते । ११ C. °नेषु च ॥ 78 C adds before this
कीकस शिल्पमित्युक्त कारु शिल्पं च कथ्यते । महेश्वरो हरः प्रोकचौरस्त हर उच्यते ।। १३ B. प्रकीर्णते. १४ cf. st. 54 belaw. A. नागचन्दनयो'. १५ A. 'रज्जयोः। १६ C. युयुत्सुसंगयो'. १७ C. स्तु. १८. B. रोम. १९ C. कीर्त्यते. २. A. हेम २१ B. कीर्तितः ।
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द्वितीयो मुक्तकः
fast वैर्यवस्कन्दो विग्रहो वेपुरुच्यते । मैकोष्ठः कूर्परस्याधः प्रकोष्ठो द्वारकोष्ठकः । प्रोक्तं वितानमुल्लोचं वितानं शून्यमुच्यते । सती दाक्षायणी देवी सच्चरित्राबला सती ॥ वधू वधूर्भार्या वधूः पुत्रवधूः स्मृता । मैक्षे कशिपुरित्युक्तिः मावारः कशिपुर्मतः ।। आडम्बरो गजारावस्तूर्यनाद भण्यते । कपर्दो हरजूटौघः कपर्दः श्वेतकाकिणी ॥ तूबरो निर्विषाणो गौर्नि[:] स्मश्रुस्तूवरः पुमान् । पापीयांसो नृशंसाः स्युर्नृशंसा वन्दिनो मताः ॥ शारदस्तु शरत्कालः स्यादधृष्टचे शारदः । उपहरो रहः स्थानं समीपं स्यादुपहरः ॥ कश्मलः स्यात् पिशाच कश्मलो मोह उच्यते । अवज्ञा कथ्यते रीढा रीढा तिरपीक्ष (य) ते ॥ स्वेदोऽपि निदाघः स्यात् निदाघो ग्रीष्म उच्यते । केतुर्ग्रहविशेषः स्याद् ध्वजः केतुरुदाहृतः ॥ वर्द्धनं छेदनं "प्रोक्तं वर्द्धनं दृद्धिरिष्यते । कशेरुकं जले कन्दे पृष्ठास्थि स्यात् कशेरुकम् ॥ निवांतमाश्रयं विद्यादभिन्नः कवचस्तथा । कीनाथ कदर्यः स्यात् कीनाशौ यमकार्षकौ ॥
२१
२२
१० C. नः स्मृताः ॥
२३
२४
२५
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२७
२८
२९
३०
s
RC adds before this line:
कीरः [च] शुक उच्यते । क्लीबध कातरः प्रोक्तः क्लीमः षंढः प्रकीर्तितः ॥ ४ B. C. वधूरपि । ५ C. भक्षः.
B. कभ्यते ।
१ C. देह उ.
कीरो वृक्षविशेषः स्यात् ३ B. स्तन्य'.
A. रैश्वर्ये
< C gives this line after the next one. A. पशु, B. श्रेष्ठं तू..
११ A. दधृदय, B. कलपृथ्व, C. कलापृष्ठश्व.
13 B gives this verse after the next one, while C gives the first line of this verse after the first line of the next verse and the second line of this verse after the second line of the next verse. १३ A. B. 'चः स्यात् . 14 cf. n. 12 above. १६ B. प्राहुर्व.
१४ B. रातिररीक्षते (?) ॥ १७ Comits this verse.
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शब्दरत्नप्रदीपः
नागो वृक्षविशेषः स्याद् नागौ वारणपन्नगौ । फुलं संघः कुलं गोत्रं शरीरं कुलमुच्यते ॥ पूगीफलं ज्ञेयं तथा पूगं कदम्बकम् । ज्ञेयाः सुमनसो देवाः कुसुमानि च सज्जनाः ॥ कुसुमं पुष्पमित्याहुः स्त्रीरजश्च तदाख्यया । धवः पतिर्धवो भीरुर्वृक्षजातिर्धवो मतः ॥
३१
३२
३३
त्र्यम्बकस्ताम्रधातुः स्यात् त्र्यम्बकश्च त्रिलोचनः । सिफा सेफालिका प्रोक्ता सिफा शिखा सिफा जटा ॥ ३४ पुण्यं सुविहितं कर्म पवित्रं पुण्यमुच्यते ।
३५
ब्रह्म वैज्ञानमित्युक्तं ब्रह्मा पौनर्भवो मतः ॥ खो राशिः खलो नीचः खलः पिण्याक उच्यते । शाला श्लाघा शिला शाला शाला शाखा च वेश्मनः || ३६ माल्यो मान्यः स्थिरो माल्यो माला माल्यमुदाहृतम् । राढा देशविशेषः स्यात् शोभा राढाभिधीयते ॥ ३७ पलं मांसं पलं मानं पलो मूर्खः पला तुला । आलिः सहचरी ज्ञेया पङ्क्तिरालिः प्रकीर्त्तिता || दलमर्द्ध दलं पर्ण दलं हस्त्यादि साधनम् । आजिः स्यात् समभूभागः संग्रामोऽप्याजिरुच्यते ॥ ३९ प्रतिज्ञा संगरो ज्ञेयः संग्रामः संगरो मतः । --उलूकः पुरुहूतः स्यात् पुरुहूतः पुरंदरः ॥
३८
अमृतं वारि विज्ञेयं देवभोज्यं तथामृतम् । कुन्त्या भूमिः समाख्याता कुन्त्या कुन्तकदम्बकम् ॥ ४१ अन्तकेऽगरे कुन्ते मृत्युः स्यान्मरणेऽपि च । संपा विद्युत् पतिः संपा संपा शङ्खध्वनिर्मतः ॥ ४२
C gives this verse after st. 47.
८. C. कुंद: कबः स्यात् .
SA भूमि.
४०
A. सुमनो (नौ ?) कुसुमसज्जनौ ॥ B. सुमनः कुसुमसंज्ञिताः (तम्) | २ C. महेश्वरः . ३. B. C. ज्ञेया.
५ C. मिष्यते ।
६ B. पाल्यं.
YBComit this line.
१० C. थाजिरे..
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४८
द्वितीयो मुक्तक 'पिण्डेऽथ कितवे द्यूते दुरोदर इति श्रुतिः । दीप्तौं दृष्टौ च तारासु ज्योतिःशब्दोऽभिधीयते ॥ ४३ 'रोगातभाग्यमूढाल्पा मन्दाः प्रोक्ता विचक्षणैः। शास्त्रं प्रमाणमिच्छन्ति स्थितिहेतुं च कोविदाः ॥ ४४ *हरिणः पाण्डुरो वर्णः कुरङ्गो हरिणो मतेः। करटः कातरो ज्ञेयः करटो ध्वास उच्यते ॥ कङ्करेटुः स्मृतो गृध्रः कङ्करेटुरमर्षणः । पध्विं बन्धनमिच्छन्ति प्राध्वं प्रध्वं च सूरयः ॥ सौधावयवविज्ञानगमनेषु कला मता। तुषारः क्षुद्रपाषाणस्तुषारस्तुषवेणिषु ॥ मणिः कोलिंजरो ज्ञेयो मणिको मणिरेव च। विषं पानीयमित्युक्तं विषमन्तकरो रसः ॥ वाजमन्नं गरुद् वाजो' वाजं पीयूषमिष्यते । व्रजो गोष्ठो व्रजो माग्गों व्रजः संघो व्रजो गणः॥४९ वीर्य शुक्रं बलं वीर्य वीर्य बीजमुदाहृतम् । नक्षत्रस्य मघा नाम कुन्दस्य कलिका मघा ॥ द्विजिहः सूचको ज्ञेयो द्विजिहस्तु भुजंगमः । विज्ञेयं शयनं शय्या शय्या पुस्तकसंचयः॥ तरसं मांसमाख्यातं तरसं बलमुच्यते । वारुणी मदिरा ज्ञेया पश्चिमा दिक् [च वारुणी ॥ ५२ . मन्दुरा वाजिशाला स्यादावासोण" च मन्दुरा। सूतृतः शिक्षितो मायः सूनृतः सत्यवाक स्मृतः ॥ ५३ "कीकसो वानरोऽभि(पि) स्यात् कीर्यते चास्थि कीकसम् ।
रोमन्थः स्यात् पशूद्गारो रोमन्थः कीटवर्तनम् ॥ ५४ १ Comits this verse. २ B व्यतिरे(१). ३ Comits this verse. ४ Cgives this line after the second line of st. 46. ५ B. णः स्मृतः । ६ C. सरटो. ७ B. कंकारंटुः « C gives this line before the first line of st. 45. ९ C. सुषारः. १० C. णः सु. ११ B. वाजं. १२ B. गोठं. १३ C. पुष्पस्य. १४ C. दिशि. १५ B. C. सोऽपि. १६ C gives this verse after the next one, १७ B. 'इमिक्षः .
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शब्दरत्नप्रदीपः 'हरिद्रा रजनी मोक्ता रजनी च विभावरी। परिघः परिघातः स्यात् परिघो दण्ड इष्यते ॥ ५५ 'धरा पृथ्वी धरा धारा धरः शैलो धरा धृतिः।
तौ क्रोधे तथा दैन्ये मन्युशब्दः प्रचक्ष्यते ॥ ५६ सरलो देवदारुश्च सरला सरलो मतः। बहुलाः कृत्तिका ज्ञेया गावश्च बहुला मताः॥ ५७ मूलः पुद्गलकः कन्दः कन्दो वारिज उच्यते। मानदण्डनयोनिष्को निष्को दीनाररुक्मयोः॥ ५८ करो हस्तः करो रश्मिः करः कर्षकशोधनम् । द्वन्द्वे दुन्दुमिरक्षेषु दुन्दुभिः स्यात् तथानक:(के) ॥ ५९ ख्यातं विपिनमुद्यानमुखानं गमनं मतम् । उपर्यभ्यधिके प्रस्थे विदुरग्रं विपश्चितः॥ ६० निवृत्तावभिधेयेऽर्थों धने चोक्तः प्रयोजने।। वर्द्धनी वर्घिटी (१वा घटी) मोक्ता वर्द्धनी तणचिंका॥ ६१ कुड्डामं रुधिरं प्रोक्तं रुधिरं क्षतजं मतम् । नन्दनः स्वेसमः पुत्रो नन्दनं शक्रकाननम् ॥ मानसं चित्तमित्युक्तं मानसं त्रैदिवं सरः। धावनं शोर्धेनं प्रोक्तं धावनं शीघ्रवर्त्तनम् ॥ "स्यन्दनाख्या द्रुमस्रावे स्यन्दनो रथ उच्यते ।
तुरायणमसंगोक्तिः क्रियाही स्तुरायणः ॥ ६४ १ci. p. 15, n. 16. २ B.C. ज्ञेया. ३ C gives this line after st. 57 and construes it with the ___first line of st. 58.
__ ४ Comits this line. ५ c omits this verse. B omits this line.. cf. n. 3 above.
७ B. वारिद. ८ ci..st. 18 above B.Comit this line. ९ A. दणे; B. द्वन्द्वो. १. C. प्रोक्तं. "C गगनं. १२ C. वार्धनी. १३ B 'कणिका ॥ १४ C. चोकं. १५ C. सुनयः प्रोको १६ C. सच(1) कीर्तनं. १७ Comits this verse. १८ B. साधनं. १९ B. 'मुच्यते. २. C. चंदनाख्यो देववृक्षचन्दनो. २१ C. परा. १२ C. 'नः परा.
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द्वितीयो मुक्तकः परायणं रिपुस्थानं तत्परश्च परायणः । करिपृष्ठे कुले वेणौ वंशाख्या कविमिर्मता ॥ - ६१ जटाजूटे शिखण्डोक्तिी कलापे च शिखण्डिनः । शिष्टभाजनदेहेषु पात्रशब्दः प्रचक्ष्यते ॥ ६६ पादत्राणे दले पक्षे लेख्यवस्तुनि पत्र-वाक् । द्रव्येऽसिपरिधानेऽपि क्रियापीनेऽपि कोश-वाक् ॥ ६७ हंसेऽनौ गरुडे चन्द्र द्विजराज इति ध्वनिः । कैवतेऽपि च कैवर्तः कैवर्तः सलिलेंचरः॥ पिप्पलाख्या जलास्वच्छवस्त्रकर्तनवस्तुषु । चन्द्रमाश्चन्दनो ज्ञेयश्चन्दनं मलयोद्भवम् ॥ सकला बीहयः सस्य विज्ञेयाः सस्यमिक्षवः । दृषधरण्यसस्ये चै कुरुविन्द इति श्रुतिः ॥ करवीरश्च मास्यादङ्गुष्ठः करवीरकः । कैरिणा बन्धनस्थानं वारि वारि जलं मतम् ॥ ७१ मध(चु)रं भूरि विज्ञेयं भूरि काञ्चनमेव च । सूदः स्यात्सूपकारश्र्थं सूदो ज्ञेयः कुँरंटकः ।। भेषको दुर्जनो ज्ञेयो भेषक सरमामुस । सूतो भास्कर इत्युक्तः सुतः सारयिरुच्यते । ॐ प्रतिरोधकस्तु चौरों दजैनः प्रतिरोधक।
सौवीरोऽश्म(व)विशेषः स्यात् सौवीर काठिज" मतम् ।। ७४ Cgives this line later on (cf. n 19 below.) २ B. 'मिः स्मृता॥ ३ C. कपालेषु which must be corrected into कैलापेषु. - B. द. ५ B. प्रचक्षते ; C. प्रवर्तते.
रणे. . C. पक्ष. ८C. शिष्टपरीवारे. B. ने च. . C 'गमने. ११ C अध्वनिः स्मृतः। १२ C. तु १३ C. ध्वनि: C. वारीणा. १५ C. भूमिर्वि. C. भूमिः . १७ B. स्तु: १८ A, B कुदम्बिका
१९ Cadds here परायणी रिपो सैन्य तत्पतिश्च परायणः । Kof. st. 65 above). and ends this मुफक fust there. इत्यनेकार्थमंजर्या द्वितीयः ॥ However, thefeas an Addendent at the end of the Ms., which gives st. 73=78 of this g . २० C. बोध.
. व. २२ C. काला
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शब्दरत्नप्रदीपः दौर्मनस्यं घृणा प्रोक्ता घृणा च करुणा मता। मङ्गः पलायनं वीचिर्भङ्गो भाश्च भञ्जनम् ॥ ७५ तीक्ष्णं तीनं समाख्यातं तीक्ष्णं लोहमुशन्ति च । मार्गणो याचको ज्ञेयो मार्गणो बाण उच्यते ॥ ७६ भृङ्गः शिलीमुखः ख्यातो नाराचोऽपि शिलीमुखः । भूशुण्डी मूकरः प्रोक्तो भूशुण्डी च कृषीवलः ॥ ७७ मृणालं बिसिनीमूलं मृणालं च जटोपली। काव्यास्तु पितरो ज्ञेयाः काव्यं ग्रन्थनिबन्धनम् ।। ७८ इस्वदीर्घप्लुते ध्वानः कृतपित्तव्यथास्वपि । रुक्मं हेम विजानीयाद् रुक्मं रजतमुच्यते ॥ उत्पलं नलिनं प्रोक्तमुत्पलं कुष्ठमौषधिः।। वामुरा वसती ज्ञेया वाँसुरा वलभी मता ॥ रजतं कलधौतं स्यात् कलधौतं च काश्चनम् । वर्णः कृष्णोऽच्युतः कृष्णः प्रोक्ता कृष्णा च पिप्पली ॥८१ समवाये यमे देवे संयद्वर इति श्रुतिः । शर्वरश्चन्द्रमा ज्ञेयः शर्वरः शवरो मतः ॥ ८२ महिला रमणी ज्ञेया रमणी वेदिका मता। प्रधानं प्रकृतिः सांख्ये प्रधानं विदुरुत्तमम् ।। वक्त्रमप्यरविन्दं स्यादरविन्दं सरोरुहम् ।। शुगालो जम्बुको भीरुः शृगालो वरुणोऽपि च ॥ ८४ त्रिदशा मरुतः प्रोक्ता मरुतोऽपि समीरणः। मायाशब्दो बुधैरिष्टः स्थलसत्त्वविशेषयोः॥ ८५ कुण्डलं मण्डलं ज्ञेयं कुण्डलं कर्णभूषणम् । प्रतिबन्धः कुलाधारः प्रतिबन्धः खलक्रिया ॥ ८६ किषिर्गोत्रविशेषः स्यात् "किषिः कालः "किषिः कपिः। कुशिौंपक इत्युक्तः कुँशिर्वैखानसो मुनिः ॥ ८७
B. नः। २ B वागुरा. B. वारुणी. ४ B. वाणुरा. - ५ B interchanges the two lines of this verse. . ..६ A. रमृतम्। - B. माला'.
A. सून्वद्यनविशेषतः (१) । ९-११ The reading is doubtful. कपि is denoted by कीश. १२ A. B. कृषि. १३ A. कृषि, B. किर्षि.
८३
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द्वितीयो मुक्तकः वत्तिर्दीपशिखासूत्रं वतिर्नेवाअनोदिता। धूम्राटश्च कलिङ्गः स्यात् कलिङ्गो देशवाचकः॥ ८८ शैले तृणविशेषेऽक नृषु गर्नुरिति ध्वनिः। 'शेलुस्तृणविशेषश्च शेलुः श्लेष्मातको मतः॥ ८९
शैलः पर्वत आख्यातः शैलः शिलासमुद्भवः। वाल्मीकश्च सीमिकः स्याद् वाल्मीको वाग्विशारदः ॥९० समाजः कुञ्जरो ज्ञेयः समाजः समयो मतः । मांजिका पक्षजातिः स्यात् प्राजिका नीलमक्षिका ॥ ९१ सारसो लक्ष्मणः प्रोक्तो लक्ष्मणो राघवानुजः। लक्ष्मणा औषधी मोक्ता कथयन्ति मनीषिणः॥ ९२ इति शब्दरत्नप्रदीपेऽधश्लोकाधिकारो द्वितीयो" मुक्तकः ॥
१ B. मंमुदिति. Both readings are doubtful. २-३ Bomits these lines. ४ A. समीकः ५ B को वा. ६ B. समीको वा वि....
. A. प्राजितः . B omits this line. ९ A omits. - ...B. C. 'यः १, B. कांडः, Comits. १२ B adds समाप्तः .. .
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तृतीयो मुक्तकः । इतः प्रभृत्यनेकार्था ज्ञेयाः प्रत्यहि रिमिः ।। राजा चन्द्रो नृपो राजा पयः क्षीरं पयो जलम् ॥ १ मित्रो भानुः सहन् मित्रं दरं छिद्रं दरं भयम् । 'ओघः पूरोऽथ वेगश्च व काननसम्बु च ॥ २ 'इला भूमिर्मता गौश्च संज्ञा चित्तं च नाम च । 'शैलोऽदिरंथमानद्रिां भानुर्भानुरर्यमा ॥ ३ श्रीकण्ठः स्थावरः स्थाण हय(१)च्छागाच्युता अजाः । गोविन्दो हरिगोसंख्ये शिवः कृष्णो वृषाकपिः ॥ ४ शरीरोत्सेध्योः कायः सन्धावधिप्रतिज्ञयोः। तेजः पुरीषयोर्वचों वसतिः स्थानक्तयोः॥ ५ सरित्समुद्रयोः सिन्धुः शालः प्राकारवृक्षयोः। चातकापत्ययोः स्तोकः पापव्यसनयोरघः ॥ ६ पिपासालोभयोस्तृष्णा भुवनं तोयलोकयोः । "मघाश्वमेधयोः काश्यो वार्डवो ह्यनिविषयोः ॥ ७ निस्त्रिंशौ खड्गपापिष्ठौ भृङ्गबाणौ शिलीमुखौ। 'मौनमण्डने निष्कौ स्तो बाष्प उष्मा तथाश्रु च ॥ ८ वृक्षजातिगजो पीलू प्रदरौ रोगमार्गणौ । "मूकरोष्ट्रौ च करभौ हावौ केंन्दनविभ्रमौ ॥ ९ नवयनलौ दावौ जीमूतौ मेघपर्वतौ ।
वल्लवौ सूदगोपालौ चिकुरौ केशचञ्चलौ ॥ १० १ B. अत: २ B वेदिभिः ३ A. गृहम् .
r C gives this line along with the two succeeding lines later on. cf. n. 12 below. ५ cf. n. 4 above. ६ B. °मिः स्मृता. A. cf. n. 4 above.
८C. गव उच्यते। 8 Comits. १. B.° कूपयोः । " B. साल:
१२ Cgives the three lines mentioned in n. 4 above, between the two lines of this verse
१३ C. मद्यमध्यमयोः । १४ °वश्वाग्नि. १५ BC omit this line.
94 C gives this line and the succeeding one after the first line of still 1. A. स्कन्दन'. १८ct. n. 16 above.C: परममि(न)लो.
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१४
तृतीयो मुकः अरिष्टपिष्ठको कस्को षौ दानवचैरिणौ । 'पङ्गुपवारुणौ पोणावम्बरौ व्योमवाससी ॥ उदानाख्यौ मरुद्वन्धौ 'निलंसौ वटदुग्धिलौ । ध्वासः काको बको ध्वाक्षो नगः शैलो नगो द्रुमः ॥ १२ खटो हुस्वः खटः क्रूरः क्षितिः पृथ्वी क्षितिः क्षयः । क्षयं गेहं क्षयो हासः श्रमः खेदः श्रमा क्रिया ।। १३ कण्ठो विधिळः कण्ठः महिः कूपः पहिः सरः। उन्दुरे सूकरे कोल कलि कलहकालयोः ।। शंशाङ्कस्वर्णयोश्चन्द्रः किरिः सूकरलोहयोः । बहिर्दर्भो" जलं बहिर्लाङ्गलं हलमम्बु च ॥ निमित्तहृदये हेतू हीरौ बज्रमद्धेश्वरौ ।। काश्मीरकशुकौ कीरौ वीसै विक्रमवान्धवौ ॥ १६ कौशिको वासयोस्क सायकावलिमार्गको मार्गणो याचको वाणो मानणं मममांसता () ९७ ध्यान्ताचलौ मत्तवन्धों मयूरानी शिखण्डिनौ।
कैमरः" कोमले काम्ये सेमरो युद्धसंघयोः॥ १८ १ Cadds मयोष्ट्र(? ऽश्वः) करभः प्रोको लक्ष्मीर्मा च प्रवक्ष्यते ।
कं पानीयं बलं प्रोक्तं नीहारं हिम उच्यते । २ A. शौ. ३ पड . is denoted by श्रोण, not by शोपा.
४ A, [उदाना, C. उदा. उदान is a kind of मरुत् , but पन्ध is denoted by उदान, not by उदान. ५ C. कामं शकशरासनम् ।
Qinterchanges this line with the second line of tne next verse. o cf. n. 6 above. A B. e. C. ?jt. «Gomits this line. ९ A. कोलयोः १. B. बों, C. दप्तो. " B. C. वनि. १२ C: हरी: ३C. सर्पिको(1) वनि (2): १४ B C omit this line. १५ C. वातावतो(१) च व्याधौ च शिखिनौ वनिपावको । A. B. मतो वाथ्यौ १६..C gives this line after st. 20. Cf n. 4 on p. 22. M-A, कसर, B. कमलं, C. एकः १८ C. काव्यो(१). १. C. समयो (३) २. B. सन्धियुद्धयोः, C. धसोबासोः (1)
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३२
शब्दरत्नप्रदीप: 'उत्सङ्गे सूकरे क्रोडो वत्सः स्व(? त)र्णकपुत्रयोः । कान्त्यनातपयोश्छाया दया हिसानुकम्पयोः ॥ १९ द्वैमो वृक्षे पुराणेऽन्ने ध्रुवो निश्चितनित्ययोः। संघाते पूरणे पूरः सरः सूर्यनरेन्द्रयोः ॥ धीरौ साविकधीमन्तौ वरौ श्रेष्ठहुताशनौ । पँतौ शलभादित्याव स्फाटिकभास्करौ ॥ गुह्यं कार्ये च कौपीने संज्ञे स्तो नामचेतने । मधुरौ च प्रियस्वाद् शम्भू ब्रह्ममहेश्वरौ ॥ कार्यरिद्धौ तथा कृत्यौ बभू नेकुलपिङ्गलौ । स्पष्टप्राज्ञौ स्मृतौ व्यक्तौ दीप्तिः स्वेच्छा तथा रुचिः ॥ २३ नित्यं स्वं च निजं मोक्तं बलदीप्तौ तौजसी। हायनं वर्षमोजश्च हेती शस्त्राचिषी मते ॥ २४ आशासंज्ञे ककुप्तृष्णे स्तनमेघौ पयोधरौं। . अभिरूपं बुधे कान्ते जामिः स्वसृकुलस्त्रियोः॥ २५ उदयाधिगमौ प्राप्ती वहिसूर्ण विभावम् । वृजिनं मलिने पापे प्रज्ञानं बुद्धिचितयोः ॥ असन्मायाविनौ लीको वीर्योद्यमौ पराक्रमौ । वराके मूषके दीन: प्लवकः कपिभेकयोः॥ २७ यज्ञः पूजा च दानं च दृष्टिभी(श्री)लौ तथा मते । चीवर वल्कले वस्त्रे कृष्णं काले तथोदरे (2)॥ २८
क्रिमा।
•
9-7 C gives these verses after the first line of st. 21, where they read as follows:
C. वलांग:(१) सूकरकोडो वत्सस्वकर्ण(?)पत्रको । कान्स्यनातपशा(?) छाया दया हिसानुकंपयोः । मो वृक्षेषु रत्नेषु [ध्रु]वो निश्चितनिधयो(?)ः। संघाते पूरणे पूरः (सू )रः सूर्यनरेश्वरः(१)
३. C. वीरो. . .r C gives st. 19-20 here and the second line of st. 18
thereafter. This marks the end of this canto, expressly stated as इत्यनेकार्थस्तृतीयोऽध्यायः ।
५ B. कनक The reading in B is not legible. * here seems to be intended for अलीको. ७ B. भीरुः
B प्लवः कपिक ९ A. B. मृतौ (1). १. B. चीवरो.
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तृतीयो मुक्तकः श्रोत्रश्च श्रवणे कर्णे तातस्तु पितृपुत्रयोः। कुट्टिमे शफरे मत्स्यो रूपं मृतौ विदुर्विधौ॥ २९ अवटौ कालग” च निमित्ते हेतुर्लक्षणे। हिते शक्ते समर्थः स्यात् प्रशान्त(?न्ता)कठिनौ मृद् ॥ ३० स्थूलौ जडबृहन्तौ [च विप्राश्च दशना द्विजाः। असदमियावलीको सहायपणिधी मैतौ ॥ ३१ रचितोऽयमनेकार्थों यथास्मृति [च युक्तके तृतीयेऽपि । उपजयतां सौभाग्यं पठतां श्रद्धावतामनिशम् ॥ ३२ ईति शेन्द[रत्न]मदीपे [पादाधिकारः] तृतीयो" मुक्तकः" ।
. A. B. नौजुष्ट. २ A. के. ३ A. अवयो. ४ B लक्ष्मणे.
५ The reading is doubtful. It represents the main word, given in nom. dual. . B adds eraf before this verse.
७ उपजीयात् ! Or उपजायता सुभाग्यं ? -B.C. इत्यनेकार्थः ९B.G.omit. १. B. य. " B. कांडः, C. ऽध्यायः १२ B adds समाप्तः
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चतुर्थों मुक्तकः । यो जयेद् राजसूयेन मण्डलस्येश्वरश्च यः।। पृथ्वी प्रशास्ति यस्याज्ञा स सम्राडभिधीयते ॥ 'सबुदिः सचिवो राज्ञस्तन्मन्त्रं निश्चिनोति । नियुक्तः कर्मणि माझा स कर्मसचिवो मतः ।। यो रोजरक्षवर्गः स्यात् सोऽनीकस्थो निमयते। अन्तापुरे येऽधिकृतास्तेऽन्तर्वेश्मिकसंशकाः ॥ 'यथार्थयुक्तस्तु चरः प्रणिधिः प्रणिगधते । एष ग्रामाधिकृत्यश्च स्थायुष(?क:) पुरुषो मतेः ॥ पण्डो वर्षधरः प्रोक्तो घृताध्यक्षश्च सारिकः । विषयानन्तरं शत्रुमित्रं च तदनन्तरम् ॥ यो लक्ष्याच्युतबाणः स्यात् सोऽपरादेषु ण्यते । कलिविन्यसनं व्यूहो वाज[:] पक्षो भवेदिषोः ॥ मत्यासारं विदुः प्राज्ञाश्चमूजघनमाहवे । प्रत्यरि सेनागमनं जानीयादभिषेणक(?न)म् ॥ ७ तुरगरयपत्तीभं सेनाङ्गमभिधीयते । स्यात् पतिसर आरण्यः प्रतिरोधः समापेनम् ॥ ८ वृत्ते वय॑ति वा युद्धे पानं स्याद् वीरपानकम् । चापध्वनिश्च विस्फारः कबन्धमशिरो वपुः॥ ९ निबन्धन मेखला)मङ्गस्य ग्रहणं स(१द)मः। वस्थो रथगुप्तिश्च गुल्मं सज्जनमिष्यते ॥ १० पुरुषो रिपुयुक्तो यः उ(?अ)पसय्य(?प): स भण्यते ।
तदभिभयमाख्यातं सबलाद भयमेव यत् ॥ ११ १-२ B interchanges these two verses. 1 B. राजा. It must be चरो यथार्थयुतस्तु ५ A. पुरुषोत्तमः A. गाध्ये', B. 'राधे' ७ A. बेमा, B. श्वेमा. ८ B. परिसेपः ९ A. °पना ॥ १. A 2, B. 0 मलल्या. 99 B omits this verse.
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चतुर्थों मुक्तक विषलिप्तफनो वाणो यः स दिग्धे इति स्मृतः । दुरापेऽपि च कृत्ये यः स्यादनव स्थितक्रियः ॥ १२ महोत्साहः स विज्ञेयः पुरुषः कृतनिश्चयः । इंहितं स्तनितं प्रोक्तमालानं बन्धनं मतम् ॥ १३ मदो दानं गजेन्द्राणां वमथुः करिसीकरः । दन्तान्तपतिमानं च सृणिरुक्तस्तदवशम् ॥ १४ विन्दुजालं शरीरोत्थं पद्म विज्ञाः प्रचक्षते। आधोरणो नियन्ता स्यान् निषादी पाजिता गजी(१) ॥१५ आजानेयः कुलीनोऽश्वः पोतः पोक्तः किशोरकः । काम्बोजश्चैव बाल्हीकः साधुवाही विनीतकः ॥ १६ पोथं घोणान्तरं पाहुरितं वलितं मतम् । अधकानः स्मृतो वाजी मृगयायो विचक्षणः ॥ चक्रं चापस्कर विन्यात् कूबरं युगमध्यगम् । श्रेयमिष्टफलं दैवं तद्विपर्यामतोऽनयम् ॥ इष्टार्थानर्थयोर्दूराद् दीर्घदर्श इति स्मृतः। 'बेहद् वृषोपगा गौः स्यादुत्तमा नैचिकी मता॥ कारयाऽथ सयंप्रजने समाना च सवर्णिका । दुसमानाप्यसंदाना मुव्रतेति निगद्यते ॥ दोहकाले पयोहीना संधिनीति विधीयते । मौदो वत्सो वत्सतरः प्रष्ठौही गर्भिणी मता ॥ विद्याद् दध्ययनं द्रप्स "घृतं सपिनिशान्तरम् । हैयावीनमित्युक्तं नवनीतं विचक्षणः ।। समा गिरेः क्षितिः सानुरधःस्थानादुपत्यका । परं तीरं विदुः पारमर्वागवारमावर्चुः ॥
२३
B. विष. २B omits.
A. प्रतिक्रिया । A. कर.
५ A. पासिताप्रजः, B. सासितव्रतः (B. स विय[:] किसेगका
७ B. स्मृतिः
A. वृ. ९ B. सावधेनुनि'. • A. रतं, B. इतं. " B. सर्पिः प्रयानकम.
A. परमावः , B..परमेवचः
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सम्बस्नप्रदीपः राजहंसाः सिता रक्तमलिनैमल्लिकाभिधाः ।। विश्रुताश्चरणैईसा धार्तराष्ट्राः सितेतरैः ॥ २४ मध्यं प्रकोष्ठमित्युक्तमरत्निमणिबन्धयो। कनिष्ठामणिबन्धान्तः करमा करपार्श्वगैः ।। ज्येष्ठा कनिष्ठा निकटे तत्पदेशिन्यनामिका ।। बाहोश्च प्रमृताङ्गुस्योरन्तरं व्याम उच्यते ॥ मादेश-ताल-गोकर्ण-वितस्तय उदाहृताः । तर्जन्यादिभिरङ्गुष्ठे वितताभिः क्रियापरे ॥ प्रसारितालिः प्राज्ञैः करः प्रतकमुच्यते । कृतमष्टिः स रलिः स्यादरनिर्वितताङ्गुलिः ॥ पुच्छं प्रकीर्णकं सिक्तं कल्यं मधं चिरोषितम् । चतुर्विधं स्मृतं वस्त्रं त्वग्युक्तं कृमिरोमजम् ॥ महाधनाख्यमित्युक्तं बहुमूल्यं विचक्षणैः । पौष्पं मधु मकरन्दं गुल्मस्थं स्तवकं बुधैः ॥ बन्धनं वृन्तमिच्छन्ति विटपं तरुविस्तरम् । संभाविताऽस्मिका(१ ता) दादाहोपुरुषिका मता ॥ ३१ फलं सुस्वादु पक्वं स्यात् मपदं(१) पुष्टमुच्यते । जातौ जातौ यदुत्कृष्टं तद्रत्नमभिधीयते ॥ "वाक्यं पदसमूहः स्यादौसाध्यमकारणम् ।। लुप्तवर्णपदं प्रस्तं निरस्त त्वरितोदितम् ॥ ३३ नितान्तं मधुरं सान्त्वं परुषं निष्ठुरं वचः।
असद्भाष्यं बहुभाष्यमसंबद्धं निरर्थकम् ॥ A. लिना. २B. 'योः A. कृपा. / B. रैः ५ A. तिस्थ, B. 'क्यं.
& According to this reading only three types are specificd, one type (viz. फालं) being left out. Hence the reading may be amended as स्वक्-फल-कृमि-रोमजम्. (cf. त्वक्-फल-कृमि-रोमाणि वस्त्रयोनिः In Amara-Kosa, II, 6, 110.)
B. करं दण्ड. ८B omits the last three quarters of st. 32 as well as the first quarter of st. 33, and construes the first quarter of st. 32 with the second quarter of st. 33. ९ May it be प्रादं !
१. B_replaces the first quarter of this st. by that of st. 32. (cf. n. 8 above.) ११ The reading seems doubtful.
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चतुओं का कल्या कल्याणवाचोक्ता सत्यकल्पा पियाप्रिया । पूर्वापरोक्तमलिष्टं द्तं स्वगतं मतम् ॥ ३५ 'स्पष्टं चित्रपदं नाम ग्राम्यमश्लीलमुच्यते । काश्चनं रजतं प्रोक्तं हिरण्याख्ये कृताकृते ॥ आहते च स्मृते रूप्ये ततोऽन्यत् कुप्यमुच्यते । भूषणं कनकं शङ्गी गवाधं पादबन्धनम् ॥ वेश्यावासोऽपि वेशः स्यादातोघं मुरजादिकम् । अर्थप्रयोगमाचार्याः कुशीदं परिचक्षते ॥ वार्दुषिक्यं च तवत्तिस्तक्रिया च विकूणिका । स्मातां ग्राहकदातारावधमर्णोत्तमर्णको ॥ ३९ कुमुदः प्रतिभा श्वेतो बभ्रुः कनकपिङ्गलौ। रक्तश्यामः स्मृतो धूम्रः पिशङ्गो रोचनाप्रमः ॥ ४० मेचकः शिखिकण्ठाभो हरित श्यामोऽसितासितिः।। आरक्तः पाटलो वर्णः शोणः कोकनदारुणः ॥ ४१ आसारो वेगवान् वर्षः पावडम्भोधरागमः । शीकरः पवनास्ताम्बु मेघाग्निः स्यादिरम्मदः॥ ४२ दृष्टया संभूतशस्यो यः स देशो देवमातकः। नधम्बुवृद्धशस्यो यः सनदीमातृको मतः॥ वरपूर्वा तु या नारी सोच्यते दिधिपूरिति । सोऽग्रेदिधिषुराख्यातः पुरुषस्तत्पुरन्ध्रिकः॥ ४४ खगा मृगाः स्मृताश्छेकाः सर्व देव गृहे रताः । यदुष्ट्रिकादिकं भाण्डं तदेवाऽऽवपनं मतम् ॥ रजतादिकृतं तत् स्यात् भृङ्गार जलदायकम् । अवकेशी फलैर्वन्ध्यः सर्वलोहं च तैजसम् ॥ व्याख्याता भैक्षर्दाता च प्राज्ञैश्च विकुलाविति । स्थानं मूलादधिष्ठानात् शाखानगरमुच्यते ॥ संसप्तकाश्च समये संग्रामादनिवर्तिनः ।। 'पद्याऽतः पथसंबन्धो गव्यूतिः क्रोशकद्वयम् ॥ ४८ लेषं. २ B. स्पृ. ३. A. "ते. ४ B. (१क)नक. ५ A. वर्षः स्यात् . B. धनं (1) ७ B. तरु. B. तो: दाता. .. B. (2)
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शब्दरत्नप्रदीपः
आगन्तुवर्तमानाभ्यां सहाहोभ्यां च पक्षिणी । श्रुतिविद्भिः स्मृता रात्रिः पुण्या हवनकर्मणि ॥ चिररात्रमिति ख्यातं चिरकालं च सूरिभिः । गणरात्रं तथा रात्रिर्बहुशश्चाभिवासितां । तत् शललीकमाख्यातं प्रच्छन्नं शललैरपि । अन्तर्गतास्थिकं कुडैयमेकं कवयो विदुः ॥ * पञ्चरागिकवस्त्रेण निर्मिताः पुत्रिकास्तु याः । पञ्चालिका इति प्रोक्ता बालक्रीडनकाश्च ताः ॥ सपरिच्छदकन्यायाः प्रदाता कूकदो मतः । सोपवस्थितो भानुरुपरक्तोऽथवा शशी ॥ पोगण्ड इति विख्यातो देहेन विकलः पुमान | मासौ द्वौ चैत्र वैशाखौ तावेव मधुमाधवौ ॥ ज्येष्ठाषाढा तथैव द्वौ प्रोक्तौ शुक्रशुची इति । नभः श्रावण इत्युक्तो नभस्यस्तदनन्तरः ||
विति विज्ञेय मासावाश्विनकार्तिकौ । स्यातां सहःसहस्यौ द्वौ मार्गपौषौ यथाक्रमम् ॥ तपस्तु माघ इत्युक्तस्तपस्यः फाल्गुनो मतः । एकसर्गजनं विन्द्यादेकायनमिति 'स्फुटम् ॥ अनेडमूक इत्युक्तः श्रोतुं वक्तुं च यः क्षमः । समरात्रिदिनं कालं विषुवन्तमुशन्ति च ॥ वात्या वातसमूहः स्यादिल्वला मृगतारकाः । राकानुमतिराचार्याः पौर्णमासीद्वयं विदुः ॥ राका संपूर्णचन्द्रा स्यात् कलोनाऽनुमतिः स्मृता । "शिनीवालप्रमाणोऽर्कसांनिध्ये यंत्र चन्द्रमाः || दृश्यते सा त्वमावास्या शिनीवालीति भण्यते । कुहे (? हि ) ति कोकिलाध्वाने कलामात्रं विधौ स्थितिः॥६१
५९
६०
१ B. मनीषिणैः
• Before this ५ A. ककुदो.
B. कथ
४९
५०
५१
५२
५३
५४
५५
५६
५७
५८
२. B. बहुलवासितासितम् (1) ३ A. "ण्डय". line B adds लोकोऽयं भारतं वर्षं पूर्णस्यादामुषामता (?) ।
६ B. रम्.
B. नः स्मृतः ।
• B. स्मृतम् . ११ A. शि (सि) ता, B. सिनी
१० B. ख्याता.
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चतुर्थों मुकका यत्रापि स्यादमावास्या नष्टचन्द्रा कुहूरिति । ऋचो यजूंषि सामानि कर्मविद्या त्रयी मता। ५२ भान्वीक्षिकी तर्कविद्या वार्ता कृष्यादि कर्मभाछ। समग्रमर्थशास्त्राणि दण्डनीतिरितीष्यते ॥ मन्वादिधर्मशास्त्राणि स्मृतयः स्मरणोदपि । ऋग्यजुषोरधीती यः स होताऽध्वर्युरिष्यते॥ ६४ सानाय्यं हविरेव स्यादुद्गाता सामतो मतः । आषाढो वतिनां दण्डः सोमपीथीति सोमपः ॥ ६५ स्वसंस्काराद् द्विजो भ्रष्टो व्रात्य इत्यभिधीयते । 'त्यक्तानिरिहा प्रोक्तो दीक्षितो मखसोमपः ॥ ६६ यजमानः स्मृतो यष्टा हुतामौ च वषट् कृत। इष्टापूर्त" ध्रुवं" दानमन्यत् पूर्वमुदाहृतम् ॥ ६७ ब्रह्मस्वाध्यायसंवृत्तिर्ब्रह्मचर्य समिष्यते । अभिमन्य हुतं सम्यग विन्यादुपाकृतं पशुम् ॥ ६८ अन्वाहार्य विदुः श्राद्धं मासिकं विधिकोविदाः । दर्शस्त्वसितपक्षान्ते सदस्या विधिदर्शिनः ॥ ६८ "दिव्यः स्यादिति सत्रस्य शेषं प्राज्ञैरुदाहृतम् । सिद्धश्चाष्टगुणैयुक्तस्त्रिवग्गों धर्मपूर्वकः ॥ पाचीनावीती विख्यातः सत्यपाणौ समुद्धृते । : हव्यं दैवे विधातव्यं पैत्रे कव्यमिति स्मृतम् ॥ ७१ योषित मुख्या वरारोहा वीरा स्यात् पतिपुत्रिणी।। प्रसाधनज्ञा स्वैवशा सैरन्ध्रीति निगधते ॥ कात्यायन्यद्धवृद्धा च सा राजवरवर्णिनी।. मध्यस्थानं भुवोः कूर्चस्तारकाऽक्षिकनीनिका ॥ ७॥
स्त्रीणां पूर्वकटीमागं जघनं कोविदा विदुः । - नितम्बमपरं मागं गुल्फ पादस्य पूर्वतः ॥ ७४ .......... , B. 'त्र सा. २ A. °पर्व', B. 'स्या'. ३ A. 'सर्व'. / B. दिभिः ५ A. पाणी(? नी), B पी[थी. ६ A. दिना. . A. न'. - B. नष्ट'. ९ A. तन(दि)प्टे. .. B. 'ती ११ A. थं. १२ A. 'व', B. बो. १३ A 'नादं स्यात् ४ A.B. स्या'.
१५ Bomits this line.
१.
A. स्व.
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शन्दनीयः
७५
६
199
मुखान्तरालमास्यं स्यात् पूर्वे संधिश्च लक्षणे । दृष्टे यत्र प्रसीदन्ति नयनानि मनांसि च ॥ प्रासादः स तु विज्ञेयः सौधः स्यात् सुधा सितः । मन्त्रोद्धारविधानज्ञः क्रियाकाण्डविशारदः ।। आचार्यः प्रोच्यते सम्यक् स्वाम्नायेन च आवस्तः । उपेत्याधीयते यस्माद् वाङ्मयं समुपागते ॥ उपाध्यायः स विज्ञेयो वृत्तिमात्रोपजीवकः । उपमर्दा सवैमल्याः तण्डुलाः पाकयुक्तितः ॥ प्रमथितेन से मन्दाः क्लिन्नत्वादोदनः स्मृतः । मुद्गादिदलपस्विनाः स्वच्छाः स्वपस्तिमाययो: (१) ॥ ७९ प्राध्यादीनां दिशां देवाः पालनाद् विदिशामपि । दिक्पाला इति विख्याताः शक्रवह्नियमादयः ॥ पाञ्चजन्यं विदुः शङ्खं हरेश्वक्रं सुदर्शनम् । कौमोदकी गदा शार्ङ्ग कार्मुकं नन्दकस्त्वसिः ॥ "शिवस्य समिध्या ( ? ) वारिस्वशब्दं स्थिरमेव च । शिवगङ्गेति विज्ञेया दुष्प्रापा दुष्कृतात्मना । नाम गोत्रं च मन्त्रं च या अभिव्यापकाः स्वयम् । सुतृणां काव्यपिण्डस्य विज्ञेयाचित्रनवः || उत्पत्तिः मलयो वंशा मन्वन्तरर-विनिर्णयः । वंशानुचरितं यत्र तत् पुराणमिति स्मृतम् ।। नाम्ना येणादयः सिद्धाः समासविधिनापि ये शब्दास्ते वाक्यतो धातोर्वोदयः कविपुंगवैः ॥ मुक्तक एव चतुर्थी गुणभोग्यः संनिवेशितः शब्दैः । वाक्य विबोध्यैर्नित्यं नितरां श्रूयते लक्ष्मीः ।। " इति " शब्दरत्नप्रदीपे चतुर्थी मुक्तकः समाप्तः ॥
८१
८५
८६
B. दु २ A. 'विचक्षणैः A omits this line. ५ B. • B adds before this: 'आर्या ॥' १० A. ससुषं (1) वै.
१३ B adds ठोकाधिकारः
•
.
११ Bomits.
१४ B. 'र्थ'.
७८
८०
८२
३ A. साधि, B. सातिनेमे. सुप्रापा सुकृतात्मना ।
B. संनिधिशब्दैः
८४
६ B. 'तोः स्मर्तव्याः
A. वितरतु १२ A omits.
१५. B. काण्ड:
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पञ्चमों मुक्तक। स्थानान्तरप्रधानत्वाद् व्यामिश्रा भवतोऽपि च । साम्प्रतं पृथगुच्यन्तेऽनेकार्थवाचकाव्ययाः ॥ समुच्चये विकल्पोक्तो व्यभिचारे व्यवस्थितौ ।
औपच्येऽतिशये हेतौ चकारोऽन्वाचयादिषु ।। व्यवच्छेदे विवक्षायां विकल्पौपम्यहेतुषु ।। पक्षान्तरविनिर्णीतौ वा-शब्दः स्यात्समुच्चये ॥ "हि स्फुटे हा विषादोक्तौ हन्त निर्दिष्टबोधने । हासोपहाससंवित्तिभावसंबोधनादिषु ॥ अहो साकल्यसाहित्यवृत्तिमात्रेषु दृश्यते । परं वा निश्चयेत्यर्थ-व्यवच्छेदकृतार्थयोंः ।। पश्चात्सत्यवितर्केषु न परेति विनिश्चये । हर्षविस्मयखेदेषु बत-शब्दो निर्बध्यते ॥ किल संख्याक्तौपम्यपूर्वसूचनहेतुषु । असंबुद्धौ निषेधे च वाक्यस्मरणयोरपि । अतिरक्तौ विषादे च न संबुद्धिनिषेधयोः । आमित्येवमतीते स्म मा स्म चेति निगद्यते ।। इतीव संभावनौपम्यपादपूरमहेतुष। न वितकें द्रुतेक किमुत प्रश्नवितर्कयोः । उपहासे विषादे हिं स्फुटानन्तरयोरुत । 'मिथोऽन्योन्यं ततश्चातः पुनः स्याच विनिश्चये ॥ १० अन्तरेणान्तरा-शब्दौ व्यतिरेकोदिती(?)* विना ।। सुष्ठु प्रायः प्रगे प्रातः पुनरत्यर्थतथ्ययोः ॥ ११ अँहर्मात्रणकाः (१) प्रोक्ता वैतथ्या?त्ता सुधा।
अयीत्यामन्त्रणौत्सुक्ययुक्तिसंभावनादिषु ॥ १२ A व्याधिः सं", B. 'अं. २ A. वि. ३ A. चायं (), B. स्तुवाचकाः (8) ४ B: ताः ५ A. हे. B. 'गद्यते.. B. स्तथा 4 B. मिथ्वाऽलीके मिथोऽन्योन्यं ९ B. न पुनर्ननु निश्चये । १. A. रिता (१). ११ A. 'ती.. | B. प्रा. B. परस्परो. r Biअम्हे भामं पणे (1) १५ B. अष्टतानुयोः (१)
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________________
লেমন্ত্রী अहो संभावनालापसंभ्रमामन्त्रणेषु च । अरे अनादराख्यायं स्थाने युक्तमितीष्यते ॥ १३ संभावने वितर्के च ए हे हाऽऽमन्त्रणे हयम् । नु संबुद्धौ(?) न्योन्य' नीवेद्यदि(?) समुच्चये ॥ १४ स्वीकारे ऊररी ऊरी उरी बोधनिषेधयोः। वायुश्च जवितो मक्षु वै स्फुटार्थस्य संमतः ॥ .. आहोस्विदयवेत्यर्थे आनन्तये ताँ अहो। आश्चर्यपदसंबुद्धिसंभावेषु निगद्यते ॥ .. एवावधारणे जातु कदाचित् खलु निश्चये । । मा निषेधे अभावे च दिष्टयानन्दे मृषाऽनृते ॥ १७ अतन्द्रातादि(१)शीघ्रार्थे पञ्जसा सहसा द्रुतम् । अथाऽऽनन्तर्यमाङ्गल्ये प्रश्नधिकारयुक्तिषु ॥ १८ संबुद्धौ च निषेधे च एव स्यादवधारणे।। प्राक् पूर्व देशकालादौ प्रत्यक् प्रत्यक्षदर्शने ॥ . १९ ईषदर्थे मनाक सम्यग निश्चये कं मुखाम्बुयोः। अहं भूषणपर्याप्तिवारणेषु निगद्यते ॥ आ स्मृतौ संभ्रमे मोहे कामं स्यादतिशायिनि । षिक् तिरस्करणे कञ्चित् साधुमश्नपत्तिषु ॥ २१ अन्वगित्यनुगत्यर्थे समाप्ताविति भण्यते। . प्रश्न विशेषयोगे च स्वित् संशयविकल्पयोः॥ २२ युगपदेककालार्थ सातत्यादेश्चिदिष्यते। समन्ताद्-विष्वगित्युक्तिविभागे पृथगुच्यते ॥ २१ इ महासे इ संबन्धे नु आमन्त्रणतथ्ययोः। पितृमीतौ तथा स्वाहा तर्पणे जातवेदसः ॥ २४ सहाथै समया ज्ञेया इंहोऽनिर्दिष्टबोधने । 'संमुखे सत् प्रतिष्ठायां तूष्णीमध्यव्यति(?) क्रमे ॥ २५ A. बाबासन्यो न्यग् (?), B. आमेसान्चा (१) २ B. युः 'वाधावि. TA. शीघ्र, B. मम्जुः ४ A. थोदये. ५ A. भव'. A. पाप्रदान (1) ... A. व्यसने, B. अखसा.
B. उन्मुखे प्रशंसायो.. A. कृष्णीमध्यहनि (1), B. तूष्णीमभ्यादि ।
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________________
३३
पञ्चमो. मुक पाहुनक्तं रजन्यर्थे दिनाय च दिवा दिनम् । संज्ञायां नामसत्तायामस्ति साध्येऽभिधीयते ॥ २६ उत्सारणे फडित्याहुर्वषट् वौषट् तु तर्षणे। अभि सामीप्यदरोर्ध्वदेशेषु परिकीर्यते ॥ . २७ सामीप्ये समया-शब्दः सामीप्ये निकषोच्यते । नानाऽनेकपकारार्थे तत्क्षणात्सपदि स्मृतः ॥ २८ चिराचिरेण कालस्य प्रकर्षोक्तौ चिराय-वाक् ।। दूराद् दूरेण दूरं च अविकृष्टं च देशकम् ॥ लघु-शब्दोऽपि शीघ्रार्थे दरोराप्तव्ययान्तिके(?)। अग्रेत्यामन्त्रणे हाहा क्रोधकृत्यनिवारणे ॥ विकल्पेऽहह हाहेति नं(१) प्रतीते च वर्जने । प्रदोषे सायमित्याहुर्बाढमत्यर्थयुक्तयोः ॥ समं साकं सहाथै च कल्यं(?) श्वरमनुद्धते । पश्चान वरे सत्ये च ध्रुवं कृत्ये च निश्चये ॥ ३२ अभिन्नेषु पुनर्भूयों मध्येऽतः प्रणतो मतः । पूजायामति-सु प्रोक्तो नीचैनिम्नः शनैर्मनाक ॥ ३३ प्रकटीकरणे प्रादुराविविश्वसितेऽनिशम् ।। बहिधेि अधोऽधस्ताव पुरोऽप्रमिजिते द्रुते ॥ ३४ तिरश्चीने तरीत्युक्तिस्तरी सत्यार्थकीर्तने ।। आहि त्वरायामाहीति आक्षेपे आहि कीर्त्यते ॥ ३५ बाहुल्यार्थे स्मृतः प्रायः उच्चैरत्यर्थतुङ्गयोः। योऽतीते मते काले हानागते वो निगद्यते ॥ ३६ प्रश्ने तर्के च किं प्रोक्तो वरमिष्टप्रशंसने। अमाशब्दः सहाथैः स्यान् विषेधे वाभिधीयते ॥ ३७ प्रहासाग्रनयोरोभिः (१) प्रतिपत्तावहा तथा ।
एकत्वेऽर्थे सकृद् विद्यादुत्कर्षे निश्चये परम् ॥ ३८ १ B विधीयते. २ B. दूरेवासंतवा'. ३ B. 4. ४ B. 'नश्वर (2) ५ B कन्यं. : A. अहमिने. A. ८ A.B. 'का ९ A. "सितम् . १. B. स्थादिभाव (2), B. पुनोदित (१) ११ A. वा प्रतीयते..
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________________
年
शरत्नप्रदीपः
पूर्वकाले पुरा माहुः माचुर्ये रमसा बळात् । नित्यं प्रतिदिनं ज्ञेयं सर्वनायें परि-ध्वनिः ॥ ततो (१) च ज्योतिके धोते चैत्रसमुच्यते (१) । तथैस्थं स्वयं स्वार्थे हि यस्मादिति विस्मये । कौत्स्ये [च] मृदुरातोरणे बोऽयं कुष्ठी विधीयताम् ॥ ४० इति शब्दरत्नप्रदीपे पञ्चमो मुक्त [क]: समाप्तः ॥
१ B दभरिक्षियो नैजमेवेस्यमु (?) च्यते । B. B. का
२ B. विस्मयः स्मृतः । ५ B. म
थभिधीयते । ४ B adds छोकाधिकारः
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________________
अक्ष
अप्र
अघस्
अङ्क
अज
अत्यय
अद्रि
अन्तर
अन्ध
अभिख्या अभिरूप 3
अमृत
अम्बर
अरविन्द
अरिष्ट
अक
अर्जुन
अर्थ
अलीक
अवट
अवि
मण्डल श्लोक
अष्टापद
अहि
आज
आडम्बर
आत्मन्
W
m
Y
३
m
WW
o
o
३
३
३
२
१
२
२
Appendix I
Index of Homonyms
७६ आलि
६० आशा
६ इडा
इन्द्र
४
इला
१४ उत्पल
३ उदान
३०
उदान
१८ उद्यान
४ उपहर
१८
२५ एक
४१ ओघ
११ | ओजस्
८४ क
३१ | ककुद्
२१ कक्षा
२७ | कङ्करेटु
६१ कण्ठ
३१ कदम्ब
३० कन्द
१० कपर्द
९० कबन्ध
४५ कमर
३९ | कमल
२४ कम्बल
१२ | कर
मण्डल
२
२
३
३
∞
२
३
१
22
२
लोक
३८ करट
२५ करण
१६ करभ
४४ करवीर
३ करीर
mov
८०
१२ कला
१२ कलि
६०
२६ कल्क
९ कल्प
२
२४ | कशिपु १९ कशेरुक
१७ कश्मल
५ काण्ड
४६ कान्तार
१४ काय
७४ काव्य
५८ | काश्य
२४ काष्ठा
१८ किङ्किणी
कलवात
कलिङ्ग
३ १८ किरि
१ ८७-८८ किषि
३२ कीकस ५९ / कीनाश
मण्डल
२
m
२
r
१
३
१
२
WW
श्लोक
४५
८५
e
5
८
८१
४७
१४
८८
११
६४
११
२३
२९
२७
३९
९५
७८
६१
२७ टी
१५
८७
५४ ३०
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
कीर
कोलाल
कुण्डल
कुतप
कुथ
कुन्तल
कुन्त्या
कुरुविन्द कुल
कुशल
कुशि
कूट
कृत्य
कृष्ण
केतु
कै
कोण
कोल
कोश
कौशिक
क्रोड
क्लीब
क्षण
क्षय
क्षिति
मंण्डल
.
m
10
ANN
nnnnnn
Nrm
श्लोक
२१टी क्षेत्र
१६
खट
२२
खर
८६. खजूर
१४ खल
१३
ध
३४ गर्नु (?)
४१
गन्धर्व
७०
गुरु
३१
गुह्य
१२ गो
८७ गोत्र
१५ मोविन्द
२३
गौरी
८१ घन
२८ | घनाघन
- २८ घृणा
६८
चक्र
५९
चन्दन
१४ | चन्द्र
६७ | चिकुर
१७ चित्रक
१९ चीवर
२१ टी छाया
४२ | जाति
१३
जामि
१३ जिन
९ जीमूत
३६
१
१
२
: ३
१
२
१
२
३
३
१
३
१
१
लोक
८ ज्योति
१३ तन्त्र
७८ तरस
९६ तल्प
३६ तांत
८२ | ताल
८९ तिलक
८२ | तोरण
९७ तुरायण
२२ तुषार
१५ तूवर
५३ | तृष्णा
४ त्र्यम्बक
५
दया
५४ दर
६ दल
७५ दायाद
७७ दाव
६९ द्विजिह
१५ दीन
१० दीप्ति
६८ दुन्दुभि
२८ दुरोदर
१९ दृष्टि
७९ देव
२५ द्रुम
५६ द्रोण १० द्विज़
मण्डल
२
३
~ m
२
WWW
m
३
o m
M
३
श्लोकं
४३
३६
५२
३
२९
६०
८१
७६
६४
४७
२५
6
३४
१९
३९
२०
१०
५१
२३
२७
♡ m v 2 : ; ~
५९
४३
२८
१७
२०
७०
३१
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक २६ ७३
मण्डल द्विजराज . २ धन्वन २ धर२ धव .२ धातु १ धात्री १ धाम २ धावन , २ धिष्ण्य २
.३
१ २ २ २
१.३
سم
PM MMMMM m mm |
سر
.
EN N r or on av N r r mor or n mr mr r .
३ . १
३ .२
धीर
.
४
१
२ . १ ३
लोक ६८ निलंस . १२ प्रज्ञान १९ नृशंस २ २५ प्रतिग्रह ५६ नेत्र १ प्रतिवन्ध ३३ पक्ष
प्रतिरोधक ३८ पट्ट
प्रत्यय २६९ पतन : ३
प्रधान १४ पत्र २
प्रमाण ६३ पद २ | प्रदर .३ पयस् : ३
१ प्रवाल अयोधर
प्रहि ११ | पराक्रम
प्राजिक ४७ पररायण
६५ प्राध्य २० परिघ ।
प्राप्ति
प्रियक .९ पलल १
प्लवक पलाश
पात्र ६२ ३१ पिप्पल ___६९ बर्हिस् ५२ पोलु
पुण्डरीक २८ पुण्य ३० पुरुहूत
पुलाक ३० पुष्कर । . १८ पुष्प ५८ पूग २
mm
३
कण
धुन धेनु ध्रुव ध्वाक्ष ध्वान, नग नन्दन नाग नाभि निज निदाघ निमित्त नियंह निवात निष्क
... mms
२ १
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२ .३
२९ ... ५७
.. १ ९१-९२
-
س
in narrrr on r s mr
२ २
م م
م
م
س
निखिंश:
३
८
प्रकोष्ठ
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
म १ ३
कोक... १२ या ७ योग ।
- ३
शोक २८ | वर्म
मन
२
माव भुवन
लोक १९
. ७२
२
.७७
norm in onorm
a
: ५० राजा १८ सदा ३३ सम।
बाडव
२ भूशुण्डिन् । २ श्रण १ सघा
२ मणि .
२ मण्डल २ मत(१) मत्स्य ३ मधु ,
१ मधुर .३ मन्द २ मन्दुरा २ मन्यु मरुत् मात्रा मानस माया मार्गण
७९ वारुणी २ ६२ बाम्मीक - २ २९/ वासुरा ।
२९ हक्म २ ८ रुधिर २
२२ रुप३ ४ रोमन्थ . २ ५२ | रोहित १
संक्मण :२ ललाम १
९५ री
१ २
0 MMMMMMM.MMMMMMMMMMMMM MM
७१ वाडीक
विग्रह २४ वितान
विभावसु विष
३ २
लीक (E) ८५ बैश
in or
३
वस
१९ / वीर्य -
س
२३ वृजिन २१ष
س
माल्य
२
२० वन
س
س
r mom n on a
११ रामकपि३
مم
मृणाल
२ १२ वर्षस मृदु
३ ३० वर्ण मोचा २५ वर्ति
मृत्यु
س
२६ व्यक्त
३
२१
म्याड
م
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
. श्यामा
शोण
शुमा
शंगाल
शुक
शारद
शलि
शर्वर
शय्या शम्भु व्रज
व्याल
शिव शिल्प शिलीमुख शाला शिखण्डिन् २. शिखण्ड . २
३
मन्स
१
२
३
- २६
९३ सौता
१६टी | समर्थ
सित सारंग
. २२ सयदर
सायक
लोक ४६ श्रम
सस्य
सरल संपा
समिति
समाज
संवर
त्रि३
م
س
ع س
س
م
ن
س
س
س
س
م م
م
نہ س
६७/ हाव
ཤྩ བྷཱུ བྷྱཱ ཉྙ ཁ ཝ ཞ ཟླ ཡྻོ ཟླ སྒྱུ བྷྱཱ ལཾ བྷྱཱ ཡྻོ, ཐཱ བྷྱཱ ཡྻ
سه"
س
س
س
مه
سم
ه
ه
ه
ه
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سر ته س کہ ہم نے تم سے تم س سس
تم
२
२४ ४५
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________________
x
x
x
x
x
* *
Appendix || Index of Technical Terms श्लोक मण्डल
मण्डल श्लोक अक्लिष्ट
३५, आवपन ४ १५/ काम्बोज ४ अग्रेदिधिषु ४ ४४ आषाढ ४ ६५ कात्यायनी ४ अधर्मण
३९ / आसार ४ ४२ / काल्या ४ अध्वर्यु ४ | आस्य
७५ किशोरक ४ १६ अनय
आहोपुरुषिका ४ ३.१ | कुप्य अनामिका ४ २६ 'इरम्मद ४ ४२ | कुशीद .४ १८ अनीकस्थ ४ ३ इल्वला ४ ५९. कुहू ६१-६२अनुमति ४ ५९-६० | इष अनेडमूक ४ ५८ इष्टापूर्त
कूबर अन्तर्वेश्मिक ४ ३ उत्तमर्ण अन्वाहार्य ४ ६९. उद्गात
६५ कौमोदकी ४ अपराद्धेषु ४
उपत्यका
२३ | गणरात्रम् ४ अपसर्प ४
उपरक्त ४ ५३. गल्यूति उपाकृत
६८ | गुल्फ४ ७४ अभिभय ४
उपाध्याय ४ ७७-७८ गुल्म अभिषेणक(न) ४ ऊर्ज
गोकर्ण भरनि
एकायन
१५७ प्रस्त४ ३३ अवकेशिन् ४ ४६ एड्रक ४ ५१ ग्राम्य ४ ३६ अवार
ओदन
चित्रधेनु भश्वकाङ्ग
१७ कनिष्ठा ४ २६ चित्रपद ४ ३६ असद्भाष्य कबन्ध
चिररात्रम् ४ आचार्य
करभ
४ २५ छेक ४ ४५ भाजानेय ४ कर्मसचिव
२ जघन ४ ७४ तोध ४ ३८ | कल्य ४ २९ ज्येष्ठा ४ २६ आधोरण ४ १५ | कल्या ४ ३५ | तण्डुल ४ ७८
लान ४ १३ | कन्य ४ ७१ तपस् ४ ५७
0c000 ccccccccccccccccccccc
*
अपस्कर
*
x
Cccccc ccccc 000000
x
x
x
x
x
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________________
तपस्य तारका
मण्डल
४ ४
ग्लोक मण्डल. लोक ३३ प्रादेश ४ २७ १५ प्रवृष्४ ४२ ३४ प्रासाद ४ ७५-७६ १९ प्रियाप्रिया ४ ३५
प्रोथ
ताल
तेजस
लोक मण्डल ५७ निरस्त ४ ७३ निषादी .४
निष्ठुर | नैचिकी ६२ | पक ४
पक्षिणी पश्चालिका ४ पन
४ .
occcccc
sccccccccc
बाहीक
to our
ब्रह्मचर्य
पथा
त्रयी त्रिवर्ग दण्डनीत दम दर्श दिपाल दिग्ध दिति दिव्य दीक्षित दीर्घदर्श देवमातृक
४ ५२ टों. ४ ४६
४
४ ४ ४
पाश्चजन्य १२ पाटल
पादबन्धन पार
पिशङ्ग १९ पुराण
४८ भारतवर्ष ८१ भृङ्गार
मकरन्द ३७- मद २३ मधु ४०. मलिन ८४ महाधन ३२: महोसाह
४. १४ ४ ५४ ४ २४ ४ ३० ४ १२-१३
देव
द्रप्स धार्तराष्ट४ धून . धौरित नदीमातृक नन्दक
Ccccccccccc
| पोगण्ड
प्रकीर्णक ४ २४. प्रकोष्ठ ४० प्रणिधि
प्रतल ४ ४३ प्रतिरोध ४
१ प्रतिसर ४ ५५ प्रत्यासार ५ ५५ प्रदेशिनी ४ ७४ प्रष्ठोही
प्राचीनावीतिन् ४ ३४ । प्राजित
४ ४
२९ मित्र २५ मे चंक .... यष्ट४
२८ रत्न ८ रनि .८ राका ७ रूप्य
वत्सतर २१ / वमथु४ ७१ / वरारोहा १५ , वरूथ
csc cccccccc
४ ५..
११,
६७ ४ ३२ ४ २८ ४ ५९-६०
३७
or orm us our mrur mr १ ॥
नभस्
४
नमस्य
निबन्धन निरर्थक
१४ ७२ १०
४
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
४
२६ | सहस्य
वर्षधर वषट्
वष्ट
४
वर
२९. वाय
वाम्य
मण्डल लोक
मण्डल ५ म्याम ६७ व्यूह
. ६ | सानु
| सान्त्व ५ सानाग्च ४
८५ सास्कि ४ शटलीक
५१ सितः शारखानगर
४७ सुत्रता ४ शिनीवाली ४ ६०-६१ सृगि शिवगङ्गा ४
सेनाङ्ग
वाज
वाल्या
वार्धषिक्य वार्ता विकुल, विकृणिका
0
४२ सैन्धी
विटप.
0
शुक्रा
0
CCCCCccc cococcccc 0 0 0 0 0 0 0
0
वितस्ति विनीतक विषुवत् विस्फर वीरपानक. वीरहन्
४
७६ ३० ४
0
0
१
श्वेत संसप्तक
सोमय ५५ सौधः ३७ | स्तयक ४ ४१ स्थायुष(क) ४ १० स्मृति ४ ४८ स्वगत ४
हरित २१ हत्य २० | हिरण्य ।
हैयङ्गाबीन ४ ५६ होत ..
0
३५
0
वीरा
संधिः संधिमी
४
0
४
नेता
0
वेश बेहत्
४ ४
| समामा ३८ १९) सहस्
सम्राज्
४
.
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________________
Appendix II Index of Indeclinables
मपल
मण्डल
लोक
अंश असा
३० | उत
३२
मतस्
२०
ऊररी
५
१० ध्रुवम्
न . नतम् न-परम् नाना निकषा
२
अति अथ अतरा अन्तरेण
१३
एख.
नित्यम्
अण्वक
२० नीचैस्
र
३३
अपि अभि
अमा अयि
किल
५
१२-१६
२४
खल
भर
अलम्
चिरात्
३२
अस्ति
17
* * * * * * * * * * * * * * * * * *
५ १०-११
अहह
३४
अहो
पुरस् पुरा
आ
प्रग
___२१ जातु
८ ततस् ३४ | तरी
आम् आविस्
प्रत्यक्
प्रा
आहि आहोस्वित्
प्रादुर २५ प्रायस्
५
३६
इति
५
. ५ ५ ५
३५ तूष्णीम् १६ दिवा २४ दरम् ९ दूरात् । ९ दूरेण ३६ | धिक्
बत ३९ | बहिस् २१ । बाढम्
उच्चैस्
५
५ ५
३४ ११
Page #65
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________________
मण्डल
भूयस् मक्षु मध्ये,
मनाक्
मा. .. मा स्म
मण्डल लोक मण्डल लोक ३३ । वा. . ५ .३ सुष्टु ५ ११ १५ विष्वञ्च ५.: २३ स्वयम् ५ ४० ३३ वै ५ १५ स्वाहा ५ २४ २० वौषट् ५ २७ स्वित् ५ २२ १७ सकृत् ५ ३८ हन्तः ५ ४
८ सपदि ५ २८ हा ५ १० | समम् ५ ३२ ५ १३ ११ समया . ५ २४-२८ हाहा ५ ३०-३१ ४३ । सम्यश्च ५ २० हि ५ ४ ३९ साकम् ५ ३२
५ ४० ३० सायम् ५ ३१ हे. ५ १३ ३७ सु ५ ३३ ह्यस् ५ ३६
मिथस्
मुधा
५
युगपत् रभसा लघु वरम्
५
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________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रकाशित ग्रन्थ 1 प्रमाणमञ्जरी-तार्किकचूड़ामणि सर्वदेव / 2 यन्त्रराजरचना-महाराजाधिराज जयसिंहदेव कारिता। 3 कान्हडदे प्रबन्ध -महाकवि पद्मनाभ / 4 क्यामखांरासा-नवाब अलफखां (कविवर जान)। 5 लावारासा- चारण कविया गोपालदान / 6 महर्षिकुलवैभवम् -विद्यावाचस्पति स्व. श्री मधुसूदनजी ओझा। 7 वृत्तिदीपिका-मौनि कृष्णभट्ट। 8 राजविनोद काव्य - कवि उदयराज / 9 तर्कसंग्रहफक्किका- क्षमाकल्याणगणी। 10 नृत्तसंग्रह - अज्ञातकर्तृक / 11 शृंगारहारावलि - हर्षकवि। 12 कृष्णगीति - कवि सोमनाथ / 13 कारकसंबन्धोद्योत - पं. रभसनन्दी / 14 शब्दरत्नप्रदीप - अज्ञातकर्तृक / प्रेस में 1 त्रिपुराभारतीलघुस्तव - सिद्धसारस्वत र व्याकरण-ठक्कुर संग्रामसिंह / 3 करुणामृतप्रपा-मह 4 पदार्थरत्नमञ्जूषा-पं. कृष्णमिश्र। 5 शकुनप्रदीप - नि रत्नाकर - पं. साधुसुन्दर गणी। 7 प्राकृतानन्द - विलासकाव्य-पं. कृष्णभट्ट / 9 चक्रपाणिविजयकाव्य-1.. / 10 काव्यप्रकाश - भट्ट सोमेश्वर। 11 नृत्यरत्न कोश-महाराजाधिराज कुंभकर्णदेव / 12 नन्दोपाख्यान - अज्ञातकर्तृक। 13 चान्द्रव्याकरण - चन्द्रगोमी। 14 रत्नकोश - अज्ञातकर्तृक / 15 कविकौस्तुभ - पं. रघुनाथ मनोहर / 16 एकाक्षरकोशसंग्रह - विविधकविकर्तृक। 17 शतकत्रयम् - भर्तृहरि, धनसारकृत व्याख्यायुक्त। 18 वसन्तविलास- अज्ञातकर्तृक / 19 दुर्गापुष्पाञ्जलि-म. म. पं. दुर्गाप्रसादजी द्विवेदी / 20 दशकण्ठवधम् - म. म. पं. दुर्गाप्रसादजी द्विवेदी। 21 गोरा बादल पदमिणी चऊपइ - कवि हेमरतन / 22 बांकोदासरी ख्यात - महाकवि बांकीदास / 23 मुंहता नैणसोरी ख्यात - मुंहता नेणसी इत्यादि / प्राप्तिस्थान - सञ्चालक, राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर, जयपुर /