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आचार्यों ने अपने लक्षणग्रन्थों में इसके पद्यों को उदाहरणस्वरूप निविष्ट कर इसके गौरव को मान्यता प्रदान की है। ____काव्यात्मकता की दृष्टि से संस्कृत और प्राकृत के महाकाव्यों में कोई भेद नहीं होता। संस्कृत में जहाँ सर्गबद्ध रचना होती है, वहीं प्राकृत में आश्वास - बद्ध ! उन आश्वासों में जो छन्द प्रयुक्त हुआ करते हैं वे अधिकतर 'स्कन्धक' अथवा 'गलितक' नाम के छन्द हआ करते हैं। इस भेद को भी कोई भेद नहीं समझा जाना चाहिये, क्योंकि यह प्राचीन निर्माण-परम्परा का अनुसरण मात्र है, न कि अन्य कुछ ।
इस (सेतुबन्ध) महाकाव्य में कुल पन्द्रह आश्वास हैं। इसके नायक दाशरथि राम हैं, जो धीरोदात्त एवं मधुमथन (विष्णु ) के अवतार हैं । रसाभिव्यञ्जन की दुष्टि से इस महाकाव्य में वीररस 'अङ्गी' (प्रधान) रूप से परिपुष्ट किया गया है और अन्य रस 'अङ्ग' अथवा 'अप्रधान' रूप से अभिव्यक्त किये गये हैं। इति वृत्त-योजना की दृष्टि से महापुरुष राम के जीवन से सम्बद्ध प्रसिद्ध वृत्त 'समुद्र पर सेतु की रचना कर समुद्र पार कर लंका पर चढ़ाई करना, निशाचरों समेत रावण का संहार कर सीता का उद्धार करना' वर्णित है। महाकाव्य की इन स्वरूप-संगत विशेषताओं के अतिरिक्त महाकाव्य की अन्यान्य विशेषतायें भी इसमें पायी जाती हैं। सर्गबन्धो महाकाव्यमुच्यते तस्य लक्षणाम् । आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वापि तन्मुखम् ।। इस भरत-वचन के अनुसार कवि ने मधुमथन के नमस्कारोपदेश से ग्रन्थ के आरम्भ में मानुषशरीर श्रीरामावतार का ही कथन कर वस्तुनिर्देश किया है अथवा 'मधुमथनं' पद में श्लेष के आधार से आगे वर्णनीय समुद्र और सेतु के नमस्कारात्मक मंगल से वस्तुनिर्देश की ही ओर संकेत किया है (देखिये १११) । आचार्य मम्मट द्वारा निर्दिष्ट काव्यप्रयोजन' ( काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहार विदे शिवेत रक्षतये। सद्यः परनिर्वत्तये कान्तासम्मितत योपदेशयुजे । ) यश प्राप्ति, अर्थलाभ, लोकव्यवहार-ज्ञान, अमङ्गल-नाश, रसास्वाद और सर. सोपदेश सर्वविदित ही है । 'सेतुबन्ध' के कवि ने अपने काव्य का प्रयोजन विशिष्ट ज्ञानवर्धन, यश प्राप्ति, विवेकादि गुणों का अर्जन, ( रामादि ) सत्पुरुषों का चरित श्रवण आदि बताया है ( देखिये १.१० )
१. 'महाकाव्यरूपः पुरुषार्थफलः समस्तवस्तुवर्णनाप्रबन्धः सर्गबन्धः संस्कृत एव ।'
(ध्वन्यालोकलोचन तृतीय उद्योत ) २. 'प्राकृतनिर्मिते तस्मिन्सर्गा आश्वाससंज्ञकाः ।
छन्दसा स्कन्धकेनैतत्क्वचिद्गलितकैरपि ।।' ( साहित्यदर्पण, ६-३२६ )
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