________________
[
११ ]
से गुप्तसम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने अपनी कन्या प्रभावती गुप्त का विवाह किया था, जिसके दो पुत्र थे-दिवाकरसेन और दामोदरसेन । ३६० ई० में रुद्रसेन द्वितीय का आकस्मिक देहावसान हो जाने पर उसकी स्त्री प्रभावती गुप्त ने राजकाज सँभाला। चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने शासनसम्बन्धी सहयोग देने के साथ-साथ राजकुमारों ( दिवाकरसेन और दामोदरसेन ) की शिक्षा-दीक्षा की भी व्यवस्था की और सम्भवतः महाकवि कालिदास इन कुमारों के शिक्षक रहे। राजकुमार दिवाकरसेन की असमय में ही मृत्यु हो जाने पर प्रभावती गुप्त ने कुछ दिन और संरक्षण कर ४१० ई० में राजकुमार दामोदर मेन को सिंहासनारूढ किया, जो प्रवरसेन द्वितीय के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
प्रवरसेन द्वितीय में राज्य की अपेक्षा कला के लिए विशेष अनुराग था और कहा जाता है कि सेतुबन्ध नामक काव्य की रचना भी इसने की थी।
उक्त कथन से वाकाटकवंशीय प्रवरसेन द्वितीय सेतुबन्ध का रचयिता प्रतीत होता है। किन्तु इस किंवदन्ती के अतिरिक्त अन्य कोई प्रबल प्रमाण न मिलने के कारण यह सन्देहास्पद ही रह जाता है। यह भी कहा जा सकता है कि ऊपर दिखाया जा चुका है कि महाकवि कालिदास प्रवरसेन द्वितीय (जन्मनाम दामोदरसेन ) के शिक्षक रह चुके थे, अतः उसके राजा होने पर शिष्यवत्सल कवि कालिदास ने उसके निमित्तही सेतुबन्ध की रचना की होगी । इस कथन की मान्यता में अनेक आपत्तियाँ हैं। ऊपर प्रवरसेन द्वितीय का कालिदास के गुरु होने की संभावना ही 'सम्भवतः' शब्द से दिखायी गयी है, कोई प्रबल प्रमाण नहीं प्रस्तुत किया गया है। दूसरे यह तभी मान्य होगा जब यह निश्चित रूप में मान लिया जाय कि महाकवि कालिदास चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के आश्रित थे। कालिदास के समय के विषय में विद्वानों में बड़ा विवाद है। अभी तक उनके उचित समयनिरूपण में इतिहासकार एकमत नहीं हो सके हैं। अतः प्रबल प्रमाणों के अभाव में यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि किस प्रवरसेन ने सेतुबन्ध की रचना की है और न यही कहा जा सकता है कि प्रवरसेन के निमित्त महाकवि कालिदास ने इसकी रचना की है।
जो कुछ भी हो, यह प्राकृत भाषा का समस्त लक्षणसम्पन्न एक उत्कृष्ट महाकाव्य है, जिसका समादर विद्वत्समाज सदा से करता आया है और परवर्ती
१. रतिभानु सिंह नाहर, एम० ए०, डी० फिल० के, 'प्राचीन भारत का राज
नीतिक और सांस्कृतिक इतिहास' (किताब महल, इलाहाबाद से प्रकाशित ) के आधार पर।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org