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और उसने ३१ वर्ष राज्य किया, अन्त में वह निःसन्तान ही मर गया । उस समय उज्जयिनी में हर्षोपनामक विक्रमादित्य चक्रवर्ती राजा थातत्रानेहस्युज्जयिन्यां श्रीमान् हर्षापराभिधः । एकच्छत्रश्चक्रवर्ती विक्रमादित्य इत्यभूत् ॥
( राजतरंगिणी, ३ - १२५ ) विक्रमादित्य ने नृपविहीन काश्मीर के राजसिंहासन पर मातृगुप्त को बैठाया । विक्रमादित्य के मर जाने पर मातृगुप्त काश्मीर मण्डल छोड़ कर काशी में रहने लगा । प्रवरसेन द्वितीय ने तदनन्तर राज्यभार सँभाला । इस प्रकार द्वितीय प्रवरसेन का राज्यकाल द्वितीय शताब्दी ई० निश्चित होता है ।
इस प्रकार यद्यपि प्रवरसेन द्वितीय और विक्रमादित्य समकालीन थे, किन्तु उनका राज्य समकालक नहीं था । राजतरङ्गिणी में कालिदास और सेतुबन्ध काव्य का नाम तक भी नहीं है, अतः कहना पड़ता है कि प्रवरसेन द्वितीय ने न तो स्वयं सेतुबन्ध लिखा है और न ही विक्रमादित्य के राज्य करते समय वह राजा ही था कि विक्रमादित्य की आज्ञा से उसके निमित्त कालिदास सेतुबन्ध लिखता ।
यदि यह कहा जाय कि मातृगुप्त काश्मीर मण्डल छोड़ कर जब काशी में रहने लगा उस समय प्रवरसेन द्वितीय से उसकी मैत्री थी । मातृगुप्त का ही दूसरा नाम कालिदास था ओर ( कालिदास ) नाम से मातृगुप्त ने ही सेतुबन्ध की रचना प्रवरसेन द्वितीय के निमित्त की, तो यह कथन भी ग्राह्य नहीं है, क्योंकि मातृगुप्त और कालिदास यदि एक ही व्यक्ति के दो नाम होते तो औचित्य विचारचर्चा आदि ग्रन्थों में 'यथा मातृगुप्तस्य यथा कालिदासस्य' यह पृथक्-पृथक् नाम क्यों मिलता ।
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अब वाकाटक वंश के दोनों प्रवरसेननामक राजाओं पर विचार किया जाता है । जिस समय उत्तर भारत में गुप्तनरेशों का गौरवपूर्ण एवम् आदरणीय स्थान था उसी समय सम्पूर्ण मध्यप्रदेश, बरार एवं दक्षिण भारत में वाकाटकों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था | वाकाटक वंश का प्रथम शासक विन्ध्यशक्ति था । विन्ध्यशक्ति के पश्चात् उसका पुत्र प्रवरसेन प्रथम २७५ ई० में सिंहासनारूढ हुआ । प्रवरसेन प्रथम के पश्चात् उसका पोत्र रुद्रसेन प्रथम शासक हुआ । तत्पश्चात् उसका पुत्र पृथ्वीषेण प्रथम ३६० ई० में सिंहासन पर बैठा । २५ वर्ष तक राज्य करने के पश्चात् ३८५ ई० में पृथ्वीषेण प्रथम का देहावसान हो गया । तत्पश्चात् उसका पुत्र रुद्रसेन द्वितीय सिंहासनारूढ हुआ । इसी रुद्रसेन द्वितीय
१. जे ० डुब्रोल, 'Ancient History of the Deccan के आधार पर ।
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