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भूमिका
इस प्रस्तुत महाकाव्य का नाम 'रावणवध' अथवा 'दशमुखवध' है, क्योंकि ग्रन्थसमाप्तिपरक स्कन्धक में 'रावणवध' और प्रत्येक आश्वास की समाप्ति पर 'दहमुहवह' ( दशमुखवध ) नाम निर्दिष्ट किया गया है
'एत्थ समप्पइ एअं सीतालम्भेण जणिअरामब्भुअअम् । रावणवह त्ति कव्वं अणुराअङ्कं समत्थजणणिव्वेसम् ॥ [ अत्र समाप्यत एतत् सीतालम्भेन जनितरामाभ्युदयम् । रावणवध इति काव्यमनुरागाङ्क समस्तजननिद्वेषम् ॥ ] ( सेतुबन्ध, १५- ६५ )
'इअ सिरिपवरसेणविरइए दहमुहवहे (इति श्रीप्रवरसेनविरचिते दशमुखवधे )' t आचार्य दण्डी ने अपने काव्यादर्श नामक ग्रन्थ में इसी महाकाव्य का दूसरा नाम 'सेतुबन्ध' दिया है-
'महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः । सागरः सूक्तिरत्नानां सेतुबन्धादि यन्मयम् ||'
काव्य - जगत् में यह महाकाव्य 'सेतुबन्ध' नाम से ही प्रसिद्ध है ।
प्रस्तुत महाकाव्य के प्रथम और द्वितीय आश्वास के अन्त में समाप्तिपरक वाक्यांश है - 'इअ सिरिपवरसेणविरइए दहमुहवहे महाकव्वे ( इति श्रीप्रवरसेनविरचिते दशमुखवधे महाकाव्ये )' । शेष तीसरे आश्वास से अन्तिम पन्द्रहवें आश्वास तक के प्रत्येक आश्वास के समाप्तिपरक वाक्य में 'कालिदासकए ( कालिदासकृते ) ' इतना और यथास्थान जुड़ा हुआ है । इसलिये ग्रन्थकर्ता के विषय में दो पक्षों का उठ खड़ा होना स्वाभाविक है ।
( काव्यादर्श, १ - ३४ )
प्रथम पक्ष - यह श्रीप्रवरसेन महाराज की कृति है । इस पक्ष के समर्थन में अनेक प्रमाण मिलते हैं
'कीर्तिः प्रवरसेनस्य प्रयाता कुमुदोज्ज्वला । सागरस्य परं पारं कपिसेनेव सेतुना ।।' ( महाकवि बाणकृत हर्षचरित से उद्धृत )
'यथा ( सेतुबन्धे १-२ ) प्रवरसेनस्य
दणुइन्दरुहिरलग्गे जस्स फरन्ते णहप्पहाविच्छड्डे । गुप्पन्ती विवलाआ गलिभ व्व थणंसुए महासुरलच्छी ॥
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