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का परम निधान है। सदियों से लेकर इसी विचारधन के कारण संस्कृत भाषा की और भारत भूमि की प्रतिष्ठा सारे संसार में सर्वमान्य हुई है। भारतीय संस्कृति का उत्स यही विचारधन होने के कारण, इस संस्कृति का आत्मस्वरूप तत्त्वतः जानने की इच्छा रखनेवाले संसार के सभी मनीषी और मेधावी सज्जन, संस्कृत भाषा तथा संस्कृत वाङ्मय के प्रति नितान्त आस्था रखते आए हैं। संस्कृत वाङ्मय के इस विचारधन का परिचय मूल संस्कृत ग्रंथों के माध्यम से करने की पात्रता रखने वालों की संख्या, संस्कृत भाषा का अध्ययन करने वालों की संख्या के हास के साथ, तीव्र गति से घटती गई। इस महती क्षति की पूर्ति करने का कार्य गत सौ वर्षों में, संस्कृत वाङ्मय के विशिष्ट अंगों एवं उपांगों का विस्तारपूर्वक या संक्षेपात्मक पर्यालोचन करनेवाले उत्तमोत्तम ग्रंथ निर्माण कर, अनेक मनीषियों ने किया है।
संसार की सभी महत्त्वपूर्ण भाषाओं में इस प्रकार के सुप्रसिद्ध ग्रंथ पर्याप्त मात्रा में अभी तक निर्माण हो चुके हैं और आगे भी होते रहेंगे। उनमें से कुछ अल्पमात्र ग्रंथों पर यह "संस्कृत वाङ्मय दर्शन'' का विभाग आधारित है। इसमें हमारे अभिनिवेश का आभास यत्र-तत्र होना अनिवार्य है, किन्तु हमारा आग्रहयुक्त निजी अभिमत या अभिप्राय प्रायः कहीं भी नहीं दिया गया। संस्कृत वाङ्मय के अन्तर्गत विविध शाखा- उपशाखाओं के ग्रंथ एवं ग्रंथकारों का संक्षेपित और समेकित परिचय एकत्रित उपलब्ध करने के लिए “संस्कृत वाङमय दर्शन" का विभाग इस कोश के प्रथम खण्ड के प्रारम्भ में जोड़ा गया है, जिसमें प्रकरणशः - (1) संस्कृत भाषा का वैशिष्ट्य, (2) मंत्र, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् स्वरूप समग्र वेदवाङ्मय का परिचय तथा वेदकाल, आर्यो का कपोलकल्पित आक्रमण, परंपरावादी भारतीय वैदिक विद्वानों की वेदविषयक धारणा इत्यादि अवांतर विषयों का भी दर्शन कराया है। (3) वेदांग वाङ्मय का परिचय देते हुए कल्प अर्थात् कर्मकाण्डात्मक वेदांग के साथ ही स्मृतिप्रकरणात्मक उत्तरकालीन धर्मशास्त्र का परिचय जोड़ा है। वास्तव में स्मृति-प्रकरणकारों का धर्मशास्त्र, कल्प-वेदांगान्तर्गत धर्मसूत्रों का ही उपबंहित स्वरूप है, अतः कल्प के साथ वह विषय हमने संयोजित किया है। इसी प्रकरण में व्याकरण वेदांग का परिचय देते हुए निरुक्त, प्रातिशाख्य, पाणिनीय व्याकरण, अपाणिनीय व्याकरण, वैयाकरण परिभाषा और दार्शनिक व्याकरण इत्यादि भाषाशास्त्र से संबंधित अवांतर विषय भी समेकित किए हैं। छदःशास्त्र के समकक्ष होने के कारण उत्तरकालीन गण-मात्रा छंद एवं संगीत-शास्त्र का परिचय वहीं जोड़ कर उस वेदांग की व्याप्ति हमने बढ़ाई है। उसी प्रकार ज्योतिर्विज्ञान के साथ आयुर्विज्ञान (या आयुर्वेद) और शिल्प-शास्त्र को एकत्रित करते हुए, संस्कृत के वैज्ञानिक वाङ्मय का परिचय दिया है। यह हेरफेर विषय-गठन की सुविधा के लिए ही किया है। हमारी इस संयोजना के विषय में किसी का मतभेद हो सकता है।
(4) पुराण-इतिहास विषयक प्रकरण में अठारह पुराणों के साथ रामायण और महाभारत इन इतिहास ग्रंथों के अंतरंग का एवं तद्विषयक कुछ विवादों का स्वरूप कथन किया है। महाभारत की संपूर्ण कथा पर्वानुक्रम के अनुसार दी है। प्रत्येक पर्व के अंतर्गत विविध उपाख्यानों का सारांश उस पर्व के सारांश के अंत में पृथक् दिया है। महाभारत का यह सारा निवेदन अतीव संक्षेप में "महाभारतसार" ग्रंथ (3 खंड- प्रकाशक श्री. शंकरराव सरनाईक, पुसद- महाराष्ट्र) के आधार पर किया हुआ है। प्रस्तुत "महाभारतसार" आज दुष्प्राप्य है।
उत्तरकालीन संस्कृत साहित्य में विविध ऐतिहासिक आख्यायिकाओं, घटनाओं एवं चरित्रों पर आधारित अनेक काव्य, नाटक चम्पू तथा उपन्यास लिखे गये। इस प्रकार के ऐतिहासिक साहित्य का परिचय भी प्रस्तुत पुराण-इतिहास विषयक प्रकरण के साथ संयोजित किया है।
___(5-8) दार्शनिक वाङ्मय के विचारों का परिचय (अ) न्याय-वैशेषिक, (आ) सांख्य-योग, (इ) तंत्र और (ई) मीमांसा- वेदान्त इन विभागों के अनुसार, प्रकरण 5 से 8 में दिया है। इसमें न्याय के अन्तर्गत बौद्ध और जैन न्याय का विहंगावलोकन किया है। योग विषय के अंतर्गत पातंजल योगसूत्रोक्त विचारों के साथ हठयोग, बौद्धयोग, भक्तियोग, कर्मयोग और ज्ञानयोग का भी परिचय दिया है। 9 वें प्रकरण में वेदान्त परिचय के अन्तर्गत शंकर, रामानुज, वल्लभ, मध्व और चैतन्य जैसे महान तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के निष्कर्षभूत द्वैत-अद्वैत इत्यादि सिद्धान्तों का विवेचन किया है। साथ ही इन सिद्धान्तों पर आधारित वैष्णव और शैव संप्रदायों का भी परिचय दिया है। इन सभी दर्शनों के विचारों का परिचय उन दर्शनों के महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्दों के विवरण के माध्यम से देने का प्रयास किया है।
दर्शन-शास्त्रों के व्यापक विचार पारिभाषिक शब्दों में ही संपिण्डित होते हैं। एक छोटी सी दीपिका के समान वे विस्तीर्ण अर्थ को आलोकित करते हैं। पारिभाषिक शब्दों का यह अनोखा महत्त्व मानते हुए दर्शन शास्त्रों के विचारों का स्वरूप पाठकों को अवगत कराने के हेतु हमने यह पद्धति अपनायी है।।
(9) जैन-बौद्ध वाङ्मय विषयक प्रकरण में उन धर्ममतों की दार्शनिक विचारधारा एवं तत्संबंधित काव्य-कथा स्तोत्र आदि ललित संस्कृत साहित्य का भी परिचय दिया है।
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