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पञ्चमः खण्डः - का० ३ अथ ज्ञानपर्यायादात्मनो व्यतिरेके भेदेनोपलम्भः स्यात्, अव्यतिरेके पर्यायमात्रम् द्रव्यमानं वा भवेत्, व्यतिरेकाऽव्यतिरेकपक्षस्तु विरोधाघ्रातः, अनुभयपक्षस्त्वन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकनिषेधेनापरविधानादसंगतः । असदेतत् – व्यतिरेकाऽव्यतिरेकपक्षस्याभ्युपगमात् । न च व्यतिरेकपक्षभावी तद्व्यतिरेकेणोपलब्धिप्रसंगो दोषः, एकज्ञानव्यतिरेकेण ज्ञानान्तरेऽपि तस्य प्रतीतेर्व्यतिरेकोपलम्भस्य सद्भावात् । अव्यतिरेकोऽपि, ज्ञानात्मकत्वेन तस्य प्रतीतेः । न च व्यतिरेकाऽन्यतिरेकयोरन्योन्यपरिहारेणावस्थानाद् विरोधः, अबाधितप्रमाणविषयीकृते वस्तुतत्त्वे विरोधाऽसम्भवात्, अन्यथा संशयज्ञानस्यैकानेकरूपस्य वैशेषिकेण, ग्राह्य-ग्राहकसंवित्तिरूपस्य बुद्ध्यात्मनश्चैकानेकस्वभावस्य सौगतेन कथं प्रतिपादनमुपपत्तिमद् भवेत् यदि प्रमाणप्रतिपन्ने वस्तुतत्त्वे विरोधः संगच्छेतेत्यादि पूर्वमेव प्रतिपादितम् । वर्तमानपर्यायस्यान्वयिद्रव्यद्वारेण त्रिकालास्तित्वप्रतिपादकं प्रतीत्यवचनमिति सिद्धम् ।
का अनुभव भ्रान्तिरूप है' -- इस अनुभव में कोई बाधक प्रतीति का उदय नहीं है अतः वह भ्रान्तिरूप नहीं हो सकता । यह बात पहले ही कही जा चुकी है।
* आत्मा और ज्ञानपर्याय में भेदाभेद * शंका :- यहाँ चार पक्ष हैं, आत्मा विज्ञानपर्याय से भिन्न है ? अभिन्न है ? भिन्न-अभिन्न (उभय) है ? या अनुभय यानी दो में से एक भी नहीं है ? प्रथम पक्ष में विज्ञान से अलग आत्मद्रव्य का उपलम्भ प्रसक्त होगा । दूसरे अभेद पक्ष में, या तो सिर्फ द्रव्यरूप आत्मा ही रहेगा अथवा सिर्फ विज्ञान ही अकेला उपलब्ध होगा, क्योंकि अभेद में द्वित्व नहीं टिकता । उभयवाले तीसरे पक्ष में स्पष्ट ही विरोध है, क्योंकि भेद-अभेद परस्परपरिहारवृत्ति हैं । चौथे अनुभय पक्ष में, एक का निषेध दूसरे (उस के अभाव) का आक्षेपक होने से, संगत नहीं होगा ।
उत्तर :- यह गलत शंका है । तीसरे भिन्नाभिन्न पक्ष को तो हम मानते ही हैं । इस का मतलब यह नहीं है कि विज्ञान से अलग उस की उपलब्धि का दोष होगा, क्योंकि एक विवक्षित ज्ञान में परिणत होने पर, अन्य अपरिणत ज्ञान से भिन्नरूप में आत्मद्रव्य की उपलब्धि हो सकती है -- इस में कोई दोषगन्ध नहीं है । तथा आत्मा ज्ञानमय होने की प्रतीति किस को नहीं होती ? अतः आत्मा ज्ञान से कथंचित् अभिन्न भी है । यदि कहें कि -- भेद-अभेद परस्पर परिहारी होने से एक-दूसरे से विरुद्ध है, अत: विरोधदोष प्रसक्त होगा -- तो यह ठीक नहीं है, जब पूर्वोक्त रीति से बाधकरहित प्रमाण से यह अनुभव होता है कि आत्मा कथंचित् ज्ञानमय है और ज्ञान से कथंचित् भिन्न है तब प्रमाणसिद्ध वस्तुतत्त्व होने पर विरोध को अवकाश नहीं रहता । यदि प्रमाणसिद्ध वस्तुतत्त्व के ऊपर भी ऐसे विरोध थोपा जायेगा तो वह वैशेषिक और बौद्धमत में भी सावकाश रहेगा – वैशेषिक मानता है कि संशयज्ञान एक होते हुए भी परस्पर विरुद्ध कोटिद्वयावगाही होने से तद्ग्राही -- अतद्ग्राही ऐसे उभयरूप होता है । तथा, बौद्ध मानता है कि एक ही बुद्धि, ग्राह्य संवेदन रूप और ग्राहक संवेदनरूप उभयात्मक होती है और बुद्धिरूप में एक भी होती है । यदि प्रमाणसिद्ध वस्तु में भी विरोध संगत माना जाय तो वैशेषिक-बौद्धवादी कैसे अपने मत का उपपादन कर पायेंगे ? पहले ही यह बात कही जा चुकी है।
निष्कर्ष, यह सिद्ध होता है कि प्रतीत्यवचन वर्तमान परिणाम को अपने अन्वयि द्रव्य के माध्यम से त्रिकालावस्थायि प्रदर्शित करता है ।
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