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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् __परमाण्वारम्भकद्रव्यात् कार्यद्रव्यं व्यणुकादि द्रव्यान्तरं वैशेषिकाभिप्रायतः, तेन निःसृतं = सम्बद्धं कारणं परमाण्वादि यत् प्रतिपादयति तदपि प्रतीत्यवचनम् । तथाहि - त्र्यणुकरूपतया परमाणवः प्रादुर्भूताः व्यणुकतया प्रच्युताः परमाणुरूपतया अविचलितस्वरूपा अभ्युपगन्तव्याः, अन्यथा तद्रूपतयाऽनुत्पादे प्राक्तनरूपताऽपगमो न स्यात् परमाण्ववस्थावत्, प्राक्तनरूपापगमे वा नोत्तररूपतयोत्पत्तिस्तदवस्थावत् । परमाणुरूपतयाऽपि विनाशोत्पत्त्यभ्युपगमे पूर्वोत्तरावस्थयोर्निराधारविगम-प्रादुर्भावप्रसक्तिः । न च तदवस्थयोरेवाऽऽधारत्वम् तयोस्तदानीमसत्त्वात् । न च पूर्वोत्तरकार्यद्रव्यविनाशप्रादुर्भावयोः कारणस्याविनाश-प्रादुर्भावौ, ततस्तस्यैकान्ततो हिमवद्-विन्ध्ययोरिव भेदप्रसक्तेः । न च कारणाश्रितस्य कार्यद्रव्यस्योत्पत्ते यं दोषः, तयोर्युतसिद्धितः कुण्ड-बदरवत् पृथगुपलब्धिप्रसक्तेः। अयुतसिद्धावपि
* परमाणु एवं व्यणुकादि द्रव्यों का तादात्म्य * मूलगाथा के चतुर्थपाद में प्रतीत्यवचन का अन्य एक स्वरूप दिखाया गया है -- द्रव्यान्तर नि:सृत जो वचन है वह भी प्रतीत्यवचन है । यहाँ 'द्रव्यान्तर' शब्द का अर्थ वैशेषिकमतानुसार लेना है व्यणुक आदि, क्योंकि व्यणुकादि के आरम्भक यानी उपादान रूप से जनक जो परमाणु द्रव्य हैं उन से सर्वथा भिन्न हैं ये व्यणुकादि द्रव्य, इसलिये उस को वैशेषिक मत में 'द्रव्यान्तर' कहा गया है । निःसृत यानी सम्बद्ध, अर्थात् कारणतासम्बन्धवाले परमाणुद्रव्य । तात्पर्य यह है कि परमाणु आदि कारण द्रव्य को द्रव्यान्तर से यानी व्यणुकादि द्रव्य से. सम्बद्ध यानी तादात्म्य भाव से अथवा परिणाम-परिणामी भाव से विशिष्ट. बतानेवाला जो वचन है वह भी प्रतीत्यवचन है । इस तथ्य का समर्थन करते हुए व्याख्याकार कहते हैं - त्र्यणुकरूप से परमाणु उत्पन्न होते हैं, व्यणुकरूप से च्युत होते हैं और फिर भी परमाणुरूप से अविचलितस्वभाव रहते हैं - ऐसा स्वीकार लेना चाहिये । यदि ऐसा नहीं मानते हैं, यानी परमाणुओं की त्र्यणुकरूप से उत्पत्ति नहीं मानेंगे तो पूर्वकालीन व्यणुकरूपता का परमाणुस्वरूप की तरह च्यवन भी अमान्य रहेगा, अथवा व्यणुकरूप से परमाणु का च्यवन नहीं मानेंगे तो जैसे परमाणु अवस्था की उत्पत्ति नहीं है वैसे त्र्यणुकरूप से भी उत्पत्ति नहीं होगी । यदि त्र्यणुकोत्पत्तिकाल में या व्यणुकप्रच्यवकाल में परमाणु का परमाणुरूप से भी उत्पत्ति-विनाश स्वीकार करेंगे तो उत्तरकालीन त्र्यणुकोत्पत्ति और पूर्वकालीन व्यणुकप्रच्यव दोनों को निराधार-निर्दल मानना पडेगा । यदि कहें कि त्र्यणुकावस्था और व्यणुकावस्था ही उन दोनों का आधार बन जायेगी तो यह युक्त नहीं है, क्योंकि उत्पत्तिविनाशकाल में वे अवस्था ही मौजूद नहीं हैं ।
* परमाणु का उत्पत्ति और प्रलय सयुक्तिक * यदि ऐसा कहें कि - 'व्यणुकविनाश स्वतन्त्र है, व्यणुक रूप में व्यणुक के कारणभूत परमाणु का विनाश मानने की जरूर नहीं है । तथा त्र्यणुक उत्पत्ति भी स्वतन्त्र है, त्र्यणुकरूप में कारणभूत परमाणु की उत्पत्ति मानने की भी जरूर नहीं है । तात्पर्य, कार्य के उत्पत्तिविनाश के साथ कारण के उत्पाद-प्रलय मानने की क्या जरूर ?' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि कारण-कार्य में कथंचिद् अभेद होता है इसलिये कार्य के उत्पाद-विनाश में कारण का भी कथंचिद् उत्पत्ति-प्रलय मानना युक्तियुक्त है, अन्यथा हिमाचल-विन्ध्याचल की तरह कारण-कार्य में सर्वथा भेद प्रसक्त होगा । फलत: कारण-कार्य भाव विलीन हो जायेगा । अथवा हिमाचल-विन्ध्याचल की तरह उपादान कारण से सर्वथा पृथग्रूप से कार्य का उपलम्भ प्रसक्त होगा । यदि कहें कि - ‘कार्य के साथ कारण की उत्पत्ति नहीं मानेंगे, किन्तु कारणाश्रित ही कार्यद्रव्य उत्पन्न होता है
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